रायपुर के विलक्षण दानी मान्यता है छेरछेरा के दिन याचक ब्राह्मण स्वरूप होता है और देने वाली महिलाएं मां शाकंभरी देवी होती हैं। छेरी, छै+अरी से मिलकर बना है। मनुष्य के छह शत्रु माने गए हैं- काम, क्रोध, मोह, लोभ, तृष्णा और अहंकार | बच्चे जब कहते हैं कि छेरिक छेरा छेर मरकनीन छेर छेरा तो इसका अर्थ है कि है मकरनीन (देवी) हम आपके द्वार आए हैं। माई कोठी के धान को देकर हमारी दरिद्रता को दूर कीजिए। यही कारण है कि महिलाएं धान, कोदो के साथ सब्जी व फल दान कर याचक को विदा करते हैं। कोई भी महिला इस दिन किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं जाने देती। वे क्षमता अनुसार धन-धान्य जरूर दान करती हैं।
देश की आजादी के समय रायपुर में कांग्रेस नेताओं ने पार्टी का अपना भवन बनाने का विचार किया। इसके लिए धन की जरूरत थी। धन जुटाने के लिए छेरछेरा का दिन चुना गया। घर- घर जाकर दान मांगा गया। लोगों ने भी दिल खोलकर दान किया। इस तरह से गांधी मैदान स्थित कांग्रेस भवन निर्माण का रास्ता साफ हुआ।
लोगों की भलाई के लिए व्यक्तिगत स्तर पर भी कुछ लोगों दान के ऐसे उदाहरण पेश किए जो विलक्षण हैं। रायपुर की दुधा व्यवसाय करने वाली वृद्धा जामबाई ने अपनी पूरी संपत्ति स्कूल के लिए दे दिया, जो उनके बुढ़ापे का सहारा हो सकती थी। नगर माता की उपाधि से सम्मानित बिन्नी बाई ने साग-भाजी बेचकर जितना कमा रखा था, उसे आज के बी. आर. आंबेडकर अस्पताल पास मरीजों के परिजनों के लिए धर्मशाला निर्माण के लिए दान कर दिया था। उनके मनमाफिक निर्माण नहीं हुआ तब अपनी बची खुची कमाई और भाटागांव की जमीन बेचकर रुपए दान किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने बिन्नी बाई को सम्मान निधि और विशिष्ट नागरिक का दर्जा प्रदान करने का ऐलान किया लेकिन नगर माता ने उससे स्वीकार करने से इंकार कर दिया था। ऐसी निर्लिप्तता सोची भी नहीं जा सकती।
शहर में एक और भामाशाह हुए हैं, वह सचमुच ही विलक्षण है। उनका नाम है कामता दाऊ । वे रायपुर में इसी नाम से जाने-पहचाने जाते रहे। वैसे उनका वास्तविक नाम रामरसाल अग्रवाल था। साल 1935-36 का समय था। रायपुर में उस समय तक एक भी कॉलेज नहीं था। साधनहीन परिवारों के बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित रह जाते थे। उस जमाने में नागपुर, जबलपुर या सागर जाकर पढ़ना हर किसी के बस की बात नहीं थी। इस कमी को दूर करने के लिए प्रयास भी हो रहे थे। उनमें थे महासमुंद के जनास्वामी योगानंदम, जिन्हें जे. योगानंदम के नाम से पहचानते हैं। वे भी प्रयासरत थे। उनकी कोशिशों का नतीजा है- रायपुर का वर्तमान छत्तीसगढ़ कॉलेज। कॉलेज स्थापना के सिलसिले में वे स्थानीय नेताओं से मिल रहे थे। उस समय पं. रविशंकर शुक्ल सीपी एंड बरार के शिक्षा मंत्री थे। योगानंदम जी उनसे भी मिले। पं. शुक्ल स्वयं भी इस दिशा में चिंतित थे। उन्होंने शहर के श्रेष्ठियों से संपर्क किया, मगर वे आश्वासन से अधिक और कुछ जुटा नहीं पाए । योगानंदम जी कुछ परेशान हुए, जब रायपुर का श्रेष्ठ वर्ग शुक्ल जी को सिर्फ भरोसा ही दे रहा है तब रायपुर से मदद की आशा व्यर्थ है ।
इसी उधेड़बुन के बीच वे रायपुर नगर पालिका निगम के अध्यक्ष ठाकुर प्यारेलाल सिंह से मिले । ठाकुर साहब उस समय रायपुर से ही विधायक भी थे। वे भी नगर में उच्च शिक्षा की दशा से चिंतित नए सिरे से फिर प्रयास शुरु हुआ। दान के लिए वे दोनों पहुंचे पुरानी बस्ती निवासी दाऊ कामता प्रसाद के पास। दाऊ जी ठाकुर साहब का बड़ा सम्मान करते थे। दाऊ जी भी उच्च शिक्षा के हिमायती थे। वहां बात जम गई। ठाकुर प्यारेलाल सिंह की अध्यक्षता में ‘छत्तीसगढ़ एजुकेशन सोसायटी का गठन किया गया, जिसमें पं. रामदयाल तिवारी, रामनारायण शुक्ल, और सखाराम दुबे सदस्य मनोनीत हुए। जे. योगानंदम बनाए गए सचिव ।
कामता दाऊ ने लगभग एक लाख रुपए का दान दिया और आश्वासन भी कि और जरुरत हुई तो रुपयों की कमी वे नहीं आने देंगे। लेकिन इसमें भी विलक्षणता की क्या बात? दरअसल, विलक्षण तो उनकी शर्तें थीं। पहली शर्त थी महाविद्यालय का नाम छत्तीसगढ़ कॉलेज हो, दूसरी थी उनके परिवार का कोई भी सदस्य किसी भी रूप में कॉलेज के प्रबंधन का हिस्सा नहीं होगा और तीसरी शर्त थी उनके किसी भी परिजन को कॉलेज में नौकरी पर न रखा जाएगा। क्या ऐसे किसी दान की कल्पना आज की जा सकती है? पहली ही शर्त होती है संस्था दानदाता के पूर्वज के नाम पर स्थापित हो और प्रबंधन में स्थान मिले। साथ ही उनकी सिफारिश पर कुछ सीटों पर एडमिशन दी जाएगी। आज तो लोग सूई देकर सब्बल के दान का श्रेय लूटते हैं। (वरिष्ठ साहित्यकार आशीष ठाकुर से साभार )