साहित्य और कलाओं के लिए कभी कोई स्वर्ण युग न था, न हो सकता है

साहित्य और कलाओं के लिए कभी कोई स्वर्ण युग न था, न हो सकता है

साहित्य और कलाओं को पढ़, समझ और उनसे सीखकर सच्चा लोकतांत्रिक बना जा सकता है. ये संसाधन हमारे पड़ोस में हैं, अगर हम अपनी खिड़की खोलकर देखें

हमारे आस-पास इतना गर्हित विभिन्न रूपों में प्रतिदिन होता रहता है और ख़ासा लोकप्रिय भी जान पड़ता है कि शक होता है कि हमारे समय में राजनीति-धर्म-मीडिया-बाज़ार में जो भी गर्हित लगभग रोज़ाना तरह-तरह के रूप घर रहा है, उसे व्यापक जन-समर्थन प्राप्त है. यह समर्थन हर दिन बढ़ता भी नज़र आता है. शायद गर्हित रूपासक्ति इतनी व्यापक इससे पहले कभी नहीं हुई. यह आसक्ति सबसे अधिक लगता है हमारे मध्यवर्ग में है. गर्हित के प्रति आकर्षण नया नहीं है पर उसके प्रति आकर्षण में विस्तार और उसका ऊपर बतायी चौकड़ी में इस कदर फैलना निश्चय ही अभूतपूर्व है. अपराध-हिंसा-हत्या-बलात्कार-अन्याय-अत्याचार आदि परिदृश्य पर बेतहाशा छा गये है. लोकतंत्र पर लगता है कि गर्हित का दबाव इस क़दर बढ़ गया है कि वह स्वयं गर्हित रूप लेता जा रहा है. यह कहना मुश्किल है कि जो इन गर्हित रूपों को पहचान पा रहे हैं वे उसके प्रभाव से सर्वथा मुक्त हैं.

कुछ बरस पहले स्वच्छता अभियान चला था. इन दिनों उसकी चर्चा कम होती है. जो गर्हित रूप प्रगट हो रहे हैं वे एक तरह का बदबूदार कचरा ही हैं जिन्हें साफ़ करने के लिए भी सार्वजनिक उद्यम की ज़रूरत है. सारी चकाचौंध के साथ जो शक्तियां इस गर्हितता को पोस-बढ़ा रही हैं उनसे यह उम्मीद करना मूर्खता होगी कि वे ऐसे उद्यम की पहल या उसका स्वागत कर सकते हैं. पहल तो नागरिक ही हो सकती है. नागरिकों का एक बड़ा वर्ग, ख़ासकर मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा, तो गर्हित रूपों का पोषक है और उससे यह तवक्को नहीं हो सकती कि वह आत्मशुद्धि के किसी प्रयत्न में शामिल होगा. वह ज्यादा से ज्यादा उसमें दूर की दिलचस्पी ही ले सकता है. यह सिर्फ़ रूचि के भ्रष्ट होने का मामला नहीं है, यह दृष्टि के दूषित होने का उदाहरण है. दूषित दृष्टि ही गर्हित और दूषित रूचि को बढ़ावा दे सकती है, जो निडर और निस्संकोच हमारे समय में दे रही है.

इन सबसे अलग जो फिर भी करोड़ों नागरिक बचते हैं और जो शायद इस गर्हित रूपासक्ति से खुद में बसे साधारण विवेक के कारण बचे रहते हैं और अब भी बचे हुए हैं, उनसे उम्मीद लगायी जा सकती है. उन्हें जो लोकतंत्र चाहिये, जो धर्म और सामाजिक आचरण चाहिये, जो ख़बरें और विवेचन चाहिये उनके विविध रूप तो हों, पर गर्हित रूपों से इनकार करें. उनका यह इनकार अनदेखा न जाये इसके लिए बौद्धिक वर्ग को कुछ ठोस कार्रवाई करना होगी. यह विकल्प सूझता तो है पर वह अमल में कैसे आयेगा यह सुसंगत ढंग से सोच नहीं पाता. उस क्षेत्र में मेरा अनुभव और जानकारी अपर्याप्त है. यह क्षीणता, फिर भी, मुझे साधारण का एक रूमान रचने से विरत नहीं करती. महानों के रूमान इतिहास के घूरे पर पड़े हैं. क्या साधारण के रूमान का, उससे विवेक और सकर्मकता की उम्मीद का रूमान भी वैसे ही हश्र का शिकार होगा? इस आशंका को अपनी उम्मीद से दबाता हूं और लिखता हूं.

हमारे मित्र प्रयाग शुक्ल ने खाना पकाने की विधियों पर एक दिलचस्प कविता बरसों पहले लिखी थी. उसे याद करते हुए यह सूझा कि इन दिनों हमारे आस-पास इतना कुछ है और हो रहा है कि उससे सीखने की कई विधियां पायी और बरती जा सकती हैं. बूढ़े लोग अकसर सीखना बन्द कर देते हैं और सिखाना शुरू कर देते हैं. ऐसे भी कई होते हैं जो ज़िन्दगी भर सिखाने का छद्म तो करते हैं पर किसी को कुछ सिखा नहीं पाते. प्रकृति, लोग, साहित्य और कलाओं के विशेषज्ञ आदि ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां से कुछ न कुछ सीखा जा सकता है. कई बार अनजाने में भी हम सीखते हैं.

मेरा बहुत सा समय दूसरों का साहित्य पढ़ने में बीतता है. उससे कविता या गद्य, आख्यान या बयान रखने-लिखने की कई नयी विधियों का पता चलता रहता है. पर जो बात मैं दशकों से सीखता और मानता रहा हूं वह यह है कि साहित्य और कलाएं हमें सिखाती हैं कि मनुष्य, उसके संसार, उसके सुख-दुख, उसकी विडम्बनाओं और उत्सुकताओं से बराबर यह समझा जा सकता है मनुष्य होने का उदात्त और समावेशी अर्थ है यह है कि कठिन से कठिन समय में भी मनुष्य होना और बने रहना संभव है; कि हमारे आस-पास, प्रकृति और मानवीय संबंधों और आकांक्षाओं में अपार सौन्दर्य है; कि भाषा जीवन और अस्तित्व को संसार को अर्थ देती है; कि सारे अवरोधों के बाद भी संवाद कभी रूकता या समाप्त नहीं होता; कि ‘मैं’ और ‘हम’ एक-दूसरे के बिना संभव नहीं; कि मनुष्य ने हज़ारों वर्षों में जो रचा-सृजा है उसे बचाना और आगे बढ़ाना मानवीय और नैतिक ज़िम्मेदारी है. वे यह भी सिखाती हैं कि बिना घृणा-भेद-भाव-हिंसा के जीवन संभव और सुन्दर होता है. वे हमें प्रश्नवाचक और लोकतांत्रिक बनने का पाठ भी सिखाती हैं. इस सीख की आज बहुत दरकार है जब हम निरन्तर हिंसक-आक्रामक, स्वार्थी होते जा रहे हैं. कभी मानवीय गरिमा को सुनिश्चित करने का काम धर्म करते थे, आज वे उस गरिमा को नष्ट करने के उद्दाम उत्साह में हैं. शिक्षा स्वयं इतनी संकीर्ण होती जा रही है कि वह कौशल तो सिखाती है, प्रश्न पूछने का साहस और ज्ञान की अपराजेय निर्भयता का गुर नहीं सिखाती.

यह बहुत अभागा समय है कि सच्चे साहित्य और कलाओं तक पहुंचने के रास्ते अगर बन्द नहीं तो बहुत छेंक दिये गये हैं. यह तब जब उनसे ही आत्ममंथन, सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता और सम्भावना, प्रश्नवाचकता, विनय और निर्भयता, विराट् से स्पन्दित हो सकने की संवेदना, पराई पीर समझने की जुगत, जीवन की सूक्ष्मता और जटिलता का बोध आदि सीखे जा सकते हैं. आज साहित्य और कलाओं को पढ़, समझ और उनसे सीखकर सच्चा लोकतांत्रिक बना जा सकता है. यह संसाधन हमारे पड़ोस में है, अगर हम अपनी खिड़की खोलकर देखें.

कुछ भ्रम

हर बुढ़ाते लेखक की तरह मुझे भी कुछ भ्रम हैं. पहला तो यह कि मुझे हिन्दी में कविता और गद्य लिखना आता है. दूसरा कि मैं सबसे अधिक मनुष्य तभी होता हूं जब लिख रहा होता हूं. तीसरा कि एक ऐसे समय में जब साहित्य और कलाएं लगभग अकारथ और अप्रासंगिक मान लिये गये हैं, मेरी उनमें लगभग ट्रैजिक आस्था अटल है. चौथा कि साहित्य और कलाओं से फ़र्क पड़ता है. पांचवा यह कि हालांकि मैं लोकप्रिय लेखक नहीं हूं, मेरे लिखे को कई पढ़ने वाले सार्थक पाते हैं. छठवां यह कि मेरे पास अब भी कुछ काम का कहने को बचा है. सातवां यह कि अगर इस समय चुप हो जाऊं तो वह कायरता होगी और मुझे ऐसी चुप्पी के लिए अपने पूर्वजों और बाद में आने वालों के सामने लज्जित होना पड़ेगा.

इनमें से कोई भी भ्रम ऐसा नहीं है तो दूसरों को नहीं होता. हम सभी कुछ भ्रमों की सोहबत में ही लिखते हैं. कई बार तो सभी संगी-साथी और दोस्त साथ छोड़ गये होते हैं तो भ्रमों की संगत ही एक मात्र सहारा और कुछ सार्थक करते रहने का आश्वासन होते हैं. हम ऐसे समय और समाज में रह रहे हैं जो हमें लगातार अकेला और निहत्था करते जा रहे हैं. इस समय साहित्य अकेलों की जमात जैसा है. यह एक तरह से अनोखी जमात है जिसमें सबके कुछ साझा भ्रम हैं और कुछ बिलकुल निराले भिन्न भ्रम. वे एक-दूसरे से कई मुद्दों पर असहमत हैं पर इससे उनके संग-साथ और परस्पर आदर में कोई कमी नहीं होनी चाहिए.

ज़ाहिर है यह सवाल उठ सकता है और उचित होगा कि पाठकों को किसी लेखक के भ्रमों से क्या लेना-देना. आम तौर पर यह सही बात होगी. पर हमारा समय असाधारण और साहित्य-कलाओं के लिए भीषण कुसमय है. इसमें अगर पाठक लेखकों के भ्रमों से भी अवगत रहें, तो उन्हें उनका लेखन बेहतर समझ में आयेगा. यह भी भ्रम हो सकता है. पर शायद लेखकों से उसके पाठक जो उम्मीद लगाते हैं उनके पूरा न होने से जो निराशा या खीझ होती है वह कुछ कम हो सकती है. ज़ाहिर है कि इन भ्रमों के आधार पर लेखक किसी रियायत की मांग नहीं कर सकते, न ही पाठक उन्हें ऐसी छूट देने को तैयार होंगे. यह नहीं भूलना चाहिये कि साहित्य और कलाओं के लिए कभी कोई स्वर्ण युग न था, न हो सकता है. हर समय टूटा-बिखरा, क्रूर-हिंसक, अपर्याप्त आदि रहता है और उन्हें लेकर लेखकों की समझ, साहस और भ्रम, कल्पना और यथार्थ, मूल्य और उत्सुकताएं बनती-बिगड़ती हैं. वर्तमान लेखक कभी इस आश्चर्य से मुक्त नहीं हो सकते कि कैसे अपने कठिन समय को अथक सृजनशीलता से विचारपूर्वक हमारे पुरुखों ने सहा, समझा और स्मरणीय ढंग से रूपायित और विन्यस्त किया. जैसे वे वैसे ही हम, पूरी तरह से, तब निरूपाय नहीं थे, न अब हैं. संक्षेप में यह भी कि जैसे मूल्यों-समझ-साहस की एक लम्बी परम्परा है वैसे ही भ्रमों की और उनकी सृजन-सम्भावना की भी. यह हमें अपने भ्रमों के साथ रचने का उत्साह देता है और हमें विनयशील भी बनाता है. ग़ालिब ने यों ही नहीं कहा था: ‘अगले ज़माने में कोई मीर भी था!’

(सौ.सत्याग्र)

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