अमर शहीद वीर नारायण सिंह की पुण्य तिथी पर विशेष लेख

अमर शहीद वीर नारायण सिंह की पुण्य तिथी पर विशेष लेख

लेखक
आशीष ठाकुर

साल 1856 की दिवाली ने एक बहुत बड़े इलाके के किसानों का दिवाला ही निकाल दिया। छत्तीसगढ़ और उड़ीसा का इलाका अकालग्रस्त हो चुका था। 1855 में भी उत्पादन कम हुआ था। किसानों के पास खाने के लिए अन्न अल्प मात्रा में रखा था। बीज के लिए रखे धान खेतों में पड़े रह गए। बहुतों ने दोबारा बोनी की वह काम नहीं आया। सोनाखान और आसपास के पचासों गांवों से सूचना मिली कि भोजन के लिए भी लाले पड़ने लगे हैं। दाऊ मंडल और पटेलों ने अपने कोठार खोल दिये थे। हवेली के सामने सुबह से ही लोगों की कतारें लग जाती थी। काठा – पैली ( माप का पैमाना ) भर – भर कर धान और चावल का वितरण शुरू हुआ। आखिर किसके भंडार में अन्नपूर्णा का वास था, जो अक्षय पात्र की तरह खाली ना होता। उधर खबरें आम होने लगी कि व्यापारियों ने अपने भरे गोदामों में ताला लगा दिया है। चुमड़ी भर धान के बदले में पशु बिकने लगे। बर्तन – गहने और जमीन गिरवी रखे जाने लगे। अनेक खेतों के मालिक बंधुआ मजदूर बनने के लिए बाध्य हो चुके थे। जिनके घर दो दो चाकर थे, वे भी सेठों के घरों के लिए कांवर में भरकर राजा तरिया से पानी लाने लगे थे क्योंकि मजदूरी में बटकी भर पानी और नून मिलता था, जिससे वे अपने बच्चों का पेट पालते थे।
उपरोक्त पैरा वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार आशीष ठाकुर की किताब ” 1857 सोनाखान ” का एक अंश है। दरअसल साल 1855 में कम वर्षा के कारण छत्तीसगढ़ और ओड़िसा में अनाज का उत्पादन कम हुआ था। अगले साल 1856 में सूखा पड़ गया था। इससे भुखमरी की स्थिति हो गई थी। गांवों के बड़े लोग जिन्हें दाऊ, गौटिया, मंडल और पटेल कहा जाता है, उन्होंने अपनी कोठियां जरूरत मन्दों के लिए खोल दी थी। मगर उनकी कोठियां भी खाली होने लगीं। सोनाखान के जमींदार नारायण सिंह प्रजापालक राजा थे। आम नागरिकों की उन्हें भी चिंता थी। उन्होंने एक बहुत बड़े व्यापारी माखन से मदद मांगी। माखन ने अनाज का गोदाम खाली होने का हवाला देकर अपने आप को मदद करने में असमर्थ बताया। तब नारायण सिंह ने जबरिया उसकी गोदाम से अनाज निकालकर जरूरत मन्दों में बटवा दिया। इस दौरान उन्होंने माखन से कहा भी कि जितना सामान वे ले जा रहे हैं, समय आने पर लौटा भी देंगे। छत्तीसगढ़ी में इस तरह का आदान – प्रदान को बाढ़ी कहा जाता है। बाढ़ी मतलब जितना कुछ लिया जाता है, लौटाते समय उससे अधिक दिया जाता है। बकायदा लिखा – पढ़ी कर अंग्रेज अफसरों को भी सूचना भिजवाने का इंतजाम किया गया।
नारायण सिंह के पूर्वज बिंझवार राजपूत थे और रतनपुर के राजा के सैनिक थे। राजा बहार साय ( बाहरेन्द्र ) ने सैन्य सेवा से प्रसन्न होकर नारायण सिंह के पूर्वज बिषई ठाकुर को सोनाखान की जमीदारी दी थी। ये जमीदारी टैक्स फ्री थी। इसके बाद नागपुर के मराठा राजा बिम्बा जी ने छत्तीसगढ़ पर कब्जा कर लिया। सोनाखान रियासत से मराठे टैक्स के रूप में वनोपज लेते थे। सोनाखान के जमीदारों के पास 300 गांवों की जमींदारी थी। किन्तु मराठे उन्हें सिर्फ 12 गांवों का जमींदार मानते थे। इसी वजह से नारायण सिंह के दादा फतेह नारायण सिंह ने मराठों के खिलाफ बगावत कर दिया। उनके बाद उनके पुत्र राम राय ने भी विद्रोह जारी रखा। मराठा राजा और अंग्रेजों की इष्ट इंडिया कम्पनी के बीच साल 1818 में एग्रीमेंट हो गया था। भौतिक स्थिति के हिसाब से अंग्रेज सोनाखान पर कब्जा करना चाहते थे। मगर उनके सामने नारायण सिंह थे। माखन के गोदाम से अनाज ले जाने की घटना को अंग्रेजों ने लूट करार दिया और आगे बहुत कुछ घटनाएं हुई और नारायण सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद 10 दिसम्बर 1857 को उन्हें फांसी दे दी गई। किन्तु तब तक नारायण सिंह अंचल में क्रांति का बिगुल फूंक चुके थे।
आशीष जी ने अपनी इस किताब को लेकर बहुत कुछ शोध किया है। इसमें मुझे बहुत कुछ नई बातों की जानकारी मिली। बताते चलूं की आशीष जी स्वतंत्रता सेनानी और छत्तीसगढ़ में सहकारिता के प्रतीक ठाकुर प्यारे लाल सिंह के पोते और हरि ठाकुर के पुत्र हैं। जिनके दादा और पिता स्वतंत्रता सेनानी रहे हों उनकी कलम कितनी कीमती होगी समझा जा सकता है।
नारायण सिंह को अब वीर नारायण सिंह के नाम से जाना जाता है। उनकी फांसी को लेकर भी कुछ बातें हैं। उन्हें रायपुर के जयस्तम्भ चौक में फांसी देने की बात कही जाती है। उस समय जयस्तम्भ चौक सूनसान हुआ करता था। आम लोगों को बगावत का संदेश देने के लिए नागरिकों के बीच सजा देना होता तो अंग्रेज भीड़ – भाड़ जगह पर उन्हें फांसी देते। उस समय जेल आज के डीके अस्पताल के पीछे हुआ करती थी। पुलिस लाइंस शारदा चौक के पास था। फांसी की जगह वही दोनों जगह होना चाहिए।
बहरहाल आशीषजी ने इस मुद्दे पर कुछ सवाल छोड़े हैं। ये किताब नाट्य शैली में लिखी गई है। संवाद छत्तीसगढ़ी में है। जिसे हिंदी के पाठक भी समझ सकते हैं।
1857 सोनाखान

Chhattisgarh