उत्तर प्रदेश के चुनाव में क्यो फ़ेल हो गईं प्रियंका गांधी ?

फ़ोटो – गूगल

उत्तर प्रदेश की 403 सीटों वाली विधानसभा चुनाव के नतीजों में बीजेपी को स्पष्ट बहुमत मिला है. यहां एक तरफ़ योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में बीजेपी एक बार सत्ता पर क़ाबिज़ होने वाली है, तो दूसरी तरफ़ केंद्र की राजनीति में दूसरी बड़ी पार्टी की भूमिका निभाने वाली कांग्रेस राज्य में दो सीटों पर सिमट गई है.

 लीडरशिप पर सवाल

प्रियंका गांधी का 40 फ़ीसद टिकट दिए जाने की घोषणा एक पब्लिसिटी स्टंट था. इसका न ही कोई राजनीतिक आधार था और न ही सामाजिक.” प्रियंका गांधी की लीडरशिप पर सवाल उठाता है. उन्होंने अपना ध्यान चुनाव प्रचार पर केंद्रित रखा, लेकिन कांग्रेस में चल रही अंदरूनी लड़ाई पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया. साथ ही उनका कैंपेन राजनीतिक से ज़्यादा सामाजिक लगा.

 कहती हैं, “कांग्रेस के राज्य में जो चेहरे थे जैसे जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह और ललितेशपति त्रिपाठी वो उनसे नाराज़ थे. उन्होंने सोनिया गांधी को लिखा, राहुल गांधी के पास गए और उन्होंने कहा कि प्रियंका गांधी से बात करो, लेकिन उन्होंने मुलाक़ात ही नहीं की. इतने लोग पार्टी छोड़ कर गए, उन्हें हटाया गया, लेकिन संगठन पर उन्होंने ध्यान ही नहीं दिया, जो कमज़ोर हो रहा था. वहीं जिन महिलाओं को टिकट दिया गया उनमें कोई बढ़िया उम्मीदवार ही नहीं था और विक्टिम कार्ड खेलने की कोशिश की गई, जैसेकि रेप पीड़ित की मां को टिकट देना.”🙏 उनके अनुसार, “कांग्रेस अपनी पारंपरिक सीटों जैसे अमेठी और रायबरेली में भी नहीं है तो ऐसे में सवाल इनके लीडरशिप पर भी उठता है.”

कांग्रेस के पास खोने के लिए कुछ नहीं

”कांग्रेस को ये अंदाजा था कि उसके पास न खोने के लिए था न पाने के लिए और ये चुनाव बड़े पैमाने पर उनके लिए एक प्रयोग था क्योंकि पिछली बार जो उम्मीदवार चुनाव लड़े वो पार्टी छोड़ चुके हैं.”

साल 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने सपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और कांग्रेस को सात सीटें मिली थीं.

“इस बार पार्टी ने ज़मीन से जुड़े कार्यकर्ताओं, नौजवानों को टिकट दिया. भले ही इस चुनाव में कांग्रेस ने कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं किया, लेकिन 2017 में जिन 300 सीटों पर पार्टी अपने सिंबल पर नहीं उतरी थी, इस बार प्रियंका गांधी के ज़रिए उसके वोटर्स तक पहुंच सकी है.”

“ऐसे में ये भी चर्चा रही कि वो चुनाव लड़तीं तो शायद थोड़ा असर होता, लेकिन वो कांग्रेस पार्टी की स्टार कैंपेनर थीं और क्राउडपुलिंग या भीड़ जुटाने में भी अहम भूमिका निभा रही थीं. ऐसे में अगर वो चुनाव लड़तीं तो पूरे राज्य को समय नहीं दे पातीं.”

*कमज़ोर संगठन* अखिलेश यादव और प्रियंका गांधी के रोड शो में भीड़ तो बहुत जुटी, लेकिन दोनों ही पार्टियों ने अपने संगठन पर ध्यान नहीं दिया.

कांग्रेस ने न ही किसी क्षेत्रीय नेता को उभारा और न ही संगठन या समुदाय का नेता ही किसी को बनाया, ऐसे में प्रियंका गांधी का हाथरस का मामला या लखीमपुर खीरी के किसानों का मुद्दा जो उन्होंने बड़े ही मुखर अंदाज में उठाया था, वो भी कोई ठोस असर नहीं छोड़ पाया क्योंकि लोगों में ये आम धारणा बनी कि वो दिल्ली से आई हैं और फिर लौट जाएंगी.

सिद्धार्थ कलहंस उत्तर प्रदेश में हुए इस चुनाव को दो ध्रुवीय बताते हैं. वे कहते हैं, “मुख्य मुक़ाबला बीजेपी और सपा के बीच था. ऐसे में इन दोनों बड़ी पार्टियों के मतों का शेयर बढ़ना लाज़मी है, कांग्रेस का वोट शेयर कम ज़रूर हुआ है, लेकिन प्रियंका गांधी के प्रयासों को सराहा जाना चाहिए.”

पिछले कुछ सालों में प्रियंका गांधी राजनीति में बहुत सक्रिय नहीं रही हैं, लेकिन यूपी में जिस तरह से वे दिखाई दीं, उससे कहीं न कहीं जानकार मानते हैं कि कांग्रेस को अंदाज़ा था कि इन चुनावों में पार्टी कोई चमत्कार नहीं कर पाएगी, दरअसल ये तैयारी 2024 की है.

“प्रियंका चुनाव के दौरान भी कह चुकी हैं कि उत्तर प्रदेश को नहीं छोड़ेंगी, ऐसे में इससे यही लगता है कि वो राज्य को नहीं छोड़ने वाली हैं. वो समझ रही हैं कि यहां पार्टी की ज़मीन को मज़बूत करना है क्योंकि अंदरूनी तौर पर उन्हें पता था कि पार्टी अधिक कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है. वहीं, जो काम चुनाव से पहले यानी पीसटाइम में एक्सरसाइज़ के तौर पर किया जाना चाहिए था वो उन्होंने वॉरटाइम में किया है यानी चुनावों से पहले संगठन को ठोस बनाने का काम किया है.”

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