जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru)अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru)अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

जवाहरलाल नेहरू Jawaharlal Nehru अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?
मौत से एक महीना पहले जवाहरलाल नेहरू कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला के साथ मिलकर दक्षिण एशिया के सबसे ज्वलंत मुद्दे को हल करने के बेहद क़रीब आ गए थे।

बात दो छोटे-छोटे जुमलों से शुरू की जाए जिनका इस किस्से से कुछ दूर का ही सही, पर राब्ता है. पंजाब में कहावत है ‘खाया-पीया लाहे दा, बाक़ी अहमद शाहे दा’. माने जो खा पी लिया वो अपना है. बाक़ी तो अहमद शाह अब्दाली ले जाएगा. वहीं, अफ़गानिस्तान में युसुज़ई माएं कहती हैं, ‘खुफता वाशिद, हरी आयद’ या ‘चुप श, हरी सिंह रघले.’ मतलब बच्चे, चुप हो जा, हरी सिंह (नलवा) आ रहा है. अब मुद्दे पर आते हैं.

1962 में चीन के साथ लड़ाई ने जवाहरलाल नेहरू Jawaharlal Nehru को शारीरिक और मानसिक तौर पर तोड़ कर रख दिया था. वे अकसर बीमार रहने लगे थे. 27 मई, 1964 को वे हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए. पर जाने से एक महीना पहले वे कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला के साथ मिलकर दक्षिण एशिया के सबसे ज्वलंत मुद्दे को हल करने के बेहद क़रीब आ गए थे. वह मुद्दा था कश्मीर का. यह वह घटना थी जो होते-होते रह गयी।

कहानी कहां से शुरू होती है?

महाराजा रणजीत सिंह के बाद कश्मीर की राजगद्दी डोगरा वंश के हाथ आ गयी थी. डोगरा हिंदू थे, जबकि रियाया में ज़्यादातर मुसलमान थे. यही कश्मीर की विडंबना थी जो ऊपर दो जुमलों से कही गयी है. पहले अफ़ग़ानी अहमद शाह दुर्रानी की सरपरस्ती में उत्तरी कश्मीर तक आ गए थे. फिर सिख हरी सिंह नलवा की अगुवाई में कश्मीर से होते हुए ख़ैबर दर्रे तक पहुंच गए थे. और फिर, डोगरा कश्मीर के हुक्मरान बन गए. वहां की अवाम इन सब के बीच झूलती ही रही.

अगर थोड़ा और पहले जाकर चौदहवीं शताब्दी में झांकें तो पाएंगे कि कश्मीर की रियाया हिंदू थी. राजा भी हिंदू थे. मोहम्मद इशाक खान की अंग्रेजी में छपी बेहद दुर्लभ क़िताब, जिसे हिंदी में ‘समकालीन सूफ़ी संसार’ कह सकते हैं, में लिखा है कि कश्मीर में ब्राह्मणों का उत्पीड़न था. कश्मीरी सूफ़ी नुरुद्दीन ऋषि का हिंदू जनता पर गहरा असर हुआ. उन्होंने जात-पांत, ऊंच-नीच को ख़त्म करके एक समाज बनाने की बात कही. वे आगे लिखते हैं कि समाज का इस्लाम कुबूल करना बेहतर बदलाव की सतत प्रकिया के तहत हुआ न कि किसी मज़हब को कमतर बताकर.

आज सोशल मीडिया पर कुछ वर्ग जवाहर लाल नेहरू को मुसलमान बताकर तमाम तरह की भ्रांतियां फैलाता है, पर कभी यह नहीं बताता कि शेख़ अब्दुल्ला के वंशज पहले मुसलमान नहीं थे. बकौल सय्यैद तफ़ाज़ुल हुसैन, जिन्होंने शेख़ अब्दुल्ला के जीवन पर ‘आतिश-ए-कश्मीर’ लिखी है, ‘अल्लामा इकबाल के वंशजों की तरह शेख़ अब्दुल्ला के पूर्वज भी कश्मीरी पंडित थे.’ उनके वालिद का नाम राघो राव कौल बताया गया है.

जब नेहरू को ‘बोध’ हुआ कि कश्मीरियों के बिना मसला हल नहीं होगा

जनवरी, 1964 में हजरतबल दरगाह में हुई चोरी का मसला अपने आप ही हल हो गया था. इस दौरान कश्मीर की जनता ने जस तरह से आंदोलन किया उससे नेहरू समझ गए कि कश्मीर के मसले को अगर हल करना है तो अवाम को बीच में रखना होगा. और इसके लिए, शेख़ अब्दुल्ला से बेहतर कौन होता जो उनकी आवाज़ बनता. लिहाज़ा, अप्रैल, 1964 को शेख़ अब्दुल्ला जेल से रिहा किये गए. शेख़ की रिहाई पर पूरा कश्मीर झूम उठा था. लोगों की नज़र में वे ‘शेर-ए-कश्मीर’ थे.

Jawaharlal Nehru उनसे और पाकिस्तान से बातचीत को तैयार थे. तबीयत ख़राब होने के बावजूद वे बेहद तेज़ी से काम कर रहे थे. शायद वे समझ गए थे कि उनके पास अब वक्त कम है. वे जीते जी कश्मीर का एक स्थाई हल चाहते थे.

शेख़ अब्दुल्ला भी मानते थे कि जवाहर लाल नेहरू के रहते कश्मीर का मसला हल हो जाए तो बेहतर होगा. उनके (नेहरू) के जाने के बाद काफ़ी मुश्किल होगी. दोनों एक ज़माने में अच्छे दोस्त थे. पर उन्हें जेल भी नेहरू के इशारे पर हुई थी. शेख़ के जेल के दिनों में नेहरू ने अपने दोस्त के परिवार की मुकम्मल देखभाल करवाई थी.

शेख़ पर पाकिस्तान के साथ मिल जाने का इल्ज़ाम लगा

हालांकि शेख़ अब्दुल्ला पर से ‘कश्मीर साज़िश’ के तमाम इल्ज़ाम हटा दिये गए थे, पर रिहा होने के बाद कश्मीर की बक्शी ग़ुलाम मोहम्मद सरकार उन पर पाकिस्तानियों से मिल जाने का इल्ज़ाम बदस्तूर लगा रही थी. शेख़ कश्मीर का फ़ैसला अवाम के हाथों में छोड़ना चाहते थे. उनका कहना था कि कश्मीर उस औरत की मानिंद है जिसके दो शौहर हैं- हिंदुस्तान और पाकिस्तान. वे मानते थे कि कश्मीरियों के पास तीन रास्ते हैं – या तो पाकिस्तान में मिल जाएं, या हिंदुस्तान में या फिर अलग ही हो जाएं. पर उनका सबसे ज्यादा जोर इस पर था कि कश्मीरियों को डोगरा राज से निजात मिलनी चाहिए. और यह तभी संभव है जब वे हिंदुस्तान में रह जाएं.

‘आतिश-ए-चिनार’ में ज़िक्र है कि एक बार पाकिस्तान से आया एक शिष्टमंडल कश्मीर के पकिस्तान में न मिलने की सूरत में शेख़ अब्दुल्ला को दबी ज़बान में धमकी दे रहा था. तब शेख़ ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा, ‘कश्मीर हथियाने के लिए पाकिस्तान को लाशों पर से गुज़रना होगा और उनको कोई हक़ नहीं है कश्मीर के अंदरूनी मामलों में दख़ल देने का.’

कश्मीर मसले पर Jawaharlal Nehru को पार्टी में विरोध और धुर विरोधियों से समर्थन मिल रहा था।





रिहाई के बाद शेख़ अब्दुल्ला अप्रैल में जवाहर लाल नेहरू से मिलने दिल्ली आये. तीन मूर्ति भवन उन दोनों की मुलाकात का गवाह बना. गुफ़्तगू के दौर चले. कई बार अफ़सरों के साथ तो कभी तन्हाई में. ताज्जुब की बात यह थी कि नेहरू किसी कांग्रेस नेता से ज़्यादा इस मसले पर अफ़सरों का भरोसा कर रहे थे.

दोनों एक दूसरे को समझने की कोशिशों में कामयाब होते दिख भी रहे थे. देश उम्मीदों से भर गया था. चीन से मिली हार के बाद नेहरु की पार्टी में स्थिति कुछ कमज़ोर हो गयी थी, सो उन पर सवाल उठ रहे थे. ख़ुद उनकी पार्टी के लोग इन मुलाकातों संशय की नज़र से को देख रहे थे. कांग्रेस के 27 सांसदों ने लिखित तौर पर उन्हें कश्मीर में जनमत संग्रह न कराने की हिदायत दी थी.

जनसंघ ने भी नेहरू का तीखा विरोध किया

संघ के प्रमुख नेता बलराज मधोक ने तो यहां तक कह डाला कि शेख अब्दुल्ला से बातचीत का मतलब होगा असम, गोवा और केरल में हिंदुस्तान के विरोध के सुर तेज़ होना. उनका कहना था कि इन सब राज्यों के अलगाववादी नेता कश्मीर के साथ होने वाले समझौते पर नजर लगाए बैठे हुए हैं. उधर, जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय बेहद तीखे प्रहार कर रहे थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर को अलग मुल्क बनवाने का इल्ज़ाम लगाया.

शास्त्री, जेपी और मीनू मसानी का साथ

कांग्रेस के भीतर नेहरू अकेले नहीं थे. हज़रतबल चोरी कांड के बाद पैदा हुए हालात से निपटने में लाल बहादुर शास्त्री की सूझबूझ ने उनका विश्वास जीत लिया था. शास्त्री भी कश्मीर के मुद्दे को बेहद नज़दीकी से देख रहे थे. वे उनके साथ थे. दूसरी तरफ़ एक शख्स और थे जो नेहरू के विरोधी होते हुए भी उन्हें इस मुद्दे पर समर्थन दे रहे थे. वे थे जयप्रकाश नारायण. और, तीसरे अहम व्यक्ति थे मीनू मसानी जो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) द्वारा गठित स्वतंत्रता पार्टी के सदस्य थे.

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिन आर्थिक नीतियों के विरोध के चलते राजाजी ने कांग्रेस से अलग होकर स्वतंत्रता पार्टी बनायीं थी उनके पीछे मीनू मसानी का हाथ था. मीनू मसानी खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे. विडंबना है कि देश की दोनों बड़ी पार्टियां नयी अर्थव्यवस्था का श्रेय लेने से नहीं चूक रही हैं. मसानी को भुला दिया गया है. खैर, मसानी के कहने पर ही राजाजी कश्मीर के मुद्दे पर नेहरू के समर्थन में आये.

हजरतबल दरगाह

राजाजी ने कश्मीर हल का बिलकुल नया प्लान दिया

दिल्ली में कुछ दिन ठहरने के बाद शेख़ अब्दुल्ला ने मद्रास जाकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) से मिलने का प्लान बनाया. उनके सफ़र का एक पड़ाव पूना भी था जहां वे बिनोबा भावे से मिले. ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि राजाजी ने कश्मीर हल का एक नया प्लान दिया और वह था हिंदुस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर का सम्मिश्रण. इसमें दोनों मुल्क कश्मीर की सुरक्षा और विदेश नीति के लिए ज़िम्मेदार होते. या फिर तीनों के बीच कॉन्फ़ेडरेशन बनाने की बात थी.

शेख़ अब्दुल्ला क्या सोचते थे?

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 50 के दशक में शेख़ अब्दुल्ला खुद को कश्मीर का रहनुमा समझते थे. पर 60 का दशक तक आते-आते वे महज़ मध्यस्थ की भूमिका निभाने की चाह रखने लगे. एक समय पर जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग उठाने वाले शेख़ अब समझने लगे थे कि ऐसा करने पर हिंदुस्तान में रहने वाले मुसलमानों और पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को तकलीफ़ का सामना करना पड़ सकता है. वे इस परिणाम को सोचकर सहम जाते थे और यही वे कश्मीर के अवाम को समझा भी रहे थे.

दूसरी तरफ़ उनका मन था कि जम्मू और लद्दाख हिंदुस्तान को दे दिए जाएं, पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर उसे और बची कश्मीर घाटी तो या तो उसे स्वायत्तता प्रदान की जाए या जनमत संग्रह करवाया जाए.

इसी सब जद्दोजहद के बीच वे पाकिस्तान के फौजी आमिर अय्यूब ख़ान से मिलने गए. ‘आतिश-ए-कश्मीर’ में ज़िक्र है कि जवाहर लाल नेहरू ख़ुद पाकिस्तान जाकर और अय्यूब ख़ान से मिलकर यह मसला हल करना चाहते थे, पर उनकी तबियत उन्हें रोक रही थी. शेख़ ने अय्यूब से इसरार किया कि वे दिल्ली आकर नेहरू से मिलें. वे राज़ी हो गए. नेहरू और शेख़ के मंसूबे तो नेक दिख रहे थे, लेकिन अय्यूब ख़ान का रुख जानना मुश्किल हो रहा था.

अफ़सोस कि 27 मई पहले आ गई

ग़ालिब का शेर है ‘मौत का दिन तो मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती.’ काश नेहरू कुछ और दिन रह गए होते. ये मुलाकातें होतीं, अंजाम तक पहुंचतीं. अयूब ख़ान हिंदुस्तान आ गए होते तो क्या कश्मीर का मुद्दा हल हो गया होता? अब कहना मुश्किल है. बहराल, 27 मई को शेख़ अब्दुल्ला पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद में थे जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के निधन की ख़बर सुनी. वे सन्न रह गए. रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि वे वहीं रो दिए. उन्होंने पाकिस्तान का बाकी का दौरा रद्द किया और पहली फुर्सत में सीधे दिल्ली आ गए. तीन मूर्ति भवन में जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के पार्थिव शरीर को देखा तो वे बच्चों की तरह बिलख पड़े. बड़ी मुश्किल से उन्हें संभाला गया.

Jawaharlal Nehru के बाद एक अध्याय, या कहें कि एक युग समाप्त हो गया था. इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष के कामराज पर ज़िम्मेदारी आ गयी कि वे देश को नेहरू का विकल्प दें. मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री आदि जैसे कई नामों पर विचार किया गया. कामराज और अन्य कांग्रेसियों को लालबहादुर शास्त्री पसंद आये.

जवाहर लाल नेहरू Jawaharlal Nehruको गए अब छह दशक हो रहे हैं. कश्मीर आज भी ‘1948’ में ही जी रहा है. शेख़ ने सही कहा था, ‘नेहरू के बाद शायद ही कोई होगा जो इस मसले को हल कर पायेगा.’
(सौ. सत्याग्रह)

जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?

जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?
मौत से एक महीना पहले जवाहरलाल नेहरू कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला के साथ मिलकर दक्षिण एशिया के सबसे ज्वलंत मुद्दे को हल करने के बेहद क़रीब आ गए थे।

बात दो छोटे-छोटे जुमलों से शुरू की जाए जिनका इस किस्से से कुछ दूर का ही सही, पर राब्ता है. पंजाब में कहावत है ‘खाया-पीया लाहे दा, बाक़ी अहमद शाहे दा’. माने जो खा पी लिया वो अपना है. बाक़ी तो अहमद शाह अब्दाली ले जाएगा. वहीं, अफ़गानिस्तान में युसुज़ई माएं कहती हैं, ‘खुफता वाशिद, हरी आयद’ या ‘चुप श, हरी सिंह रघले.’ मतलब बच्चे, चुप हो जा, हरी सिंह (नलवा) आ रहा है. अब मुद्दे पर आते हैं.

1962 में चीन के साथ लड़ाई ने जवाहरलाल नेहरू Jawaharlal Nehru को शारीरिक और मानसिक तौर पर तोड़ कर रख दिया था. वे अकसर बीमार रहने लगे थे. 27 मई, 1964 को वे हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए. पर जाने से एक महीना पहले वे कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला के साथ मिलकर दक्षिण एशिया के सबसे ज्वलंत मुद्दे को हल करने के बेहद क़रीब आ गए थे. वह मुद्दा था कश्मीर का. यह वह घटना थी जो होते-होते रह गयी।

कहानी कहां से शुरू होती है?

महाराजा रणजीत सिंह के बाद कश्मीर की राजगद्दी डोगरा वंश के हाथ आ गयी थी. डोगरा हिंदू थे, जबकि रियाया में ज़्यादातर मुसलमान थे. यही कश्मीर की विडंबना थी जो ऊपर दो जुमलों से कही गयी है. पहले अफ़ग़ानी अहमद शाह दुर्रानी की सरपरस्ती में उत्तरी कश्मीर तक आ गए थे. फिर सिख हरी सिंह नलवा की अगुवाई में कश्मीर से होते हुए ख़ैबर दर्रे तक पहुंच गए थे. और फिर, डोगरा कश्मीर के हुक्मरान बन गए. वहां की अवाम इन सब के बीच झूलती ही रही.

अगर थोड़ा और पहले जाकर चौदहवीं शताब्दी में झांकें तो पाएंगे कि कश्मीर की रियाया हिंदू थी. राजा भी हिंदू थे. मोहम्मद इशाक खान की अंग्रेजी में छपी बेहद दुर्लभ क़िताब, जिसे हिंदी में ‘समकालीन सूफ़ी संसार’ कह सकते हैं, में लिखा है कि कश्मीर में ब्राह्मणों का उत्पीड़न था. कश्मीरी सूफ़ी नुरुद्दीन ऋषि का हिंदू जनता पर गहरा असर हुआ. उन्होंने जात-पांत, ऊंच-नीच को ख़त्म करके एक समाज बनाने की बात कही. वे आगे लिखते हैं कि समाज का इस्लाम कुबूल करना बेहतर बदलाव की सतत प्रकिया के तहत हुआ न कि किसी मज़हब को कमतर बताकर.

आज सोशल मीडिया पर कुछ वर्ग जवाहर लाल नेहरू को मुसलमान बताकर तमाम तरह की भ्रांतियां फैलाता है, पर कभी यह नहीं बताता कि शेख़ अब्दुल्ला के वंशज पहले मुसलमान नहीं थे. बकौल सय्यैद तफ़ाज़ुल हुसैन, जिन्होंने शेख़ अब्दुल्ला के जीवन पर ‘आतिश-ए-कश्मीर’ लिखी है, ‘अल्लामा इकबाल के वंशजों की तरह शेख़ अब्दुल्ला के पूर्वज भी कश्मीरी पंडित थे.’ उनके वालिद का नाम राघो राव कौल बताया गया है.

जब नेहरू को ‘बोध’ हुआ कि कश्मीरियों के बिना मसला हल नहीं होगा

जनवरी, 1964 में हजरतबल दरगाह में हुई चोरी का मसला अपने आप ही हल हो गया था. इस दौरान कश्मीर की जनता ने जस तरह से आंदोलन किया उससे नेहरू समझ गए कि कश्मीर के मसले को अगर हल करना है तो अवाम को बीच में रखना होगा. और इसके लिए, शेख़ अब्दुल्ला से बेहतर कौन होता जो उनकी आवाज़ बनता. लिहाज़ा, अप्रैल, 1964 को शेख़ अब्दुल्ला जेल से रिहा किये गए. शेख़ की रिहाई पर पूरा कश्मीर झूम उठा था. लोगों की नज़र में वे ‘शेर-ए-कश्मीर’ थे.

नेहरू उनसे और पाकिस्तान से बातचीत को तैयार थे. तबीयत ख़राब होने के बावजूद वे बेहद तेज़ी से काम कर रहे थे. शायद वे समझ गए थे कि उनके पास अब वक्त कम है. वे जीते जी कश्मीर का एक स्थाई हल चाहते थे.

शेख़ अब्दुल्ला भी मानते थे कि जवाहर लाल नेहरू के रहते कश्मीर का मसला हल हो जाए तो बेहतर होगा. उनके (नेहरू) के जाने के बाद काफ़ी मुश्किल होगी. दोनों एक ज़माने में अच्छे दोस्त थे. पर उन्हें जेल भी नेहरू के इशारे पर हुई थी. शेख़ के जेल के दिनों में नेहरू ने अपने दोस्त के परिवार की मुकम्मल देखभाल करवाई थी.

शेख़ पर पाकिस्तान के साथ मिल जाने का इल्ज़ाम लगा

हालांकि शेख़ अब्दुल्ला पर से ‘कश्मीर साज़िश’ के तमाम इल्ज़ाम हटा दिये गए थे, पर रिहा होने के बाद कश्मीर की बक्शी ग़ुलाम मोहम्मद सरकार उन पर पाकिस्तानियों से मिल जाने का इल्ज़ाम बदस्तूर लगा रही थी. शेख़ कश्मीर का फ़ैसला अवाम के हाथों में छोड़ना चाहते थे. उनका कहना था कि कश्मीर उस औरत की मानिंद है जिसके दो शौहर हैं- हिंदुस्तान और पाकिस्तान. वे मानते थे कि कश्मीरियों के पास तीन रास्ते हैं – या तो पाकिस्तान में मिल जाएं, या हिंदुस्तान में या फिर अलग ही हो जाएं. पर उनका सबसे ज्यादा जोर इस पर था कि कश्मीरियों को डोगरा राज से निजात मिलनी चाहिए. और यह तभी संभव है जब वे हिंदुस्तान में रह जाएं.

‘आतिश-ए-चिनार’ में ज़िक्र है कि एक बार पाकिस्तान से आया एक शिष्टमंडल कश्मीर के पकिस्तान में न मिलने की सूरत में शेख़ अब्दुल्ला को दबी ज़बान में धमकी दे रहा था. तब शेख़ ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा, ‘कश्मीर हथियाने के लिए पाकिस्तान को लाशों पर से गुज़रना होगा और उनको कोई हक़ नहीं है कश्मीर के अंदरूनी मामलों में दख़ल देने का.’

कश्मीर मसले पर नेहरू को पार्टी में विरोध और धुर विरोधियों से समर्थन मिल रहा था

रिहाई के बाद शेख़ अब्दुल्ला अप्रैल में जवाहर लाल नेहरू से मिलने दिल्ली आये. तीन मूर्ति भवन उन दोनों की मुलाकात का गवाह बना. गुफ़्तगू के दौर चले. कई बार अफ़सरों के साथ तो कभी तन्हाई में. ताज्जुब की बात यह थी कि नेहरू किसी कांग्रेस नेता से ज़्यादा इस मसले पर अफ़सरों का भरोसा कर रहे थे.

दोनों एक दूसरे को समझने की कोशिशों में कामयाब होते दिख भी रहे थे. देश उम्मीदों से भर गया था. चीन से मिली हार के बाद नेहरु की पार्टी में स्थिति कुछ कमज़ोर हो गयी थी, सो उन पर सवाल उठ रहे थे. ख़ुद उनकी पार्टी के लोग इन मुलाकातों संशय की नज़र से को देख रहे थे. कांग्रेस के 27 सांसदों ने लिखित तौर पर उन्हें कश्मीर में जनमत संग्रह न कराने की हिदायत दी थी.

जनसंघ ने भी नेहरू का तीखा विरोध किया

संघ के प्रमुख नेता बलराज मधोक ने तो यहां तक कह डाला कि शेख अब्दुल्ला से बातचीत का मतलब होगा असम, गोवा और केरल में हिंदुस्तान के विरोध के सुर तेज़ होना. उनका कहना था कि इन सब राज्यों के अलगाववादी नेता कश्मीर के साथ होने वाले समझौते पर नजर लगाए बैठे हुए हैं. उधर, जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय बेहद तीखे प्रहार कर रहे थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर को अलग मुल्क बनवाने का इल्ज़ाम लगाया.

शास्त्री, जेपी और मीनू मसानी का साथ

कांग्रेस के भीतर नेहरू अकेले नहीं थे. हज़रतबल चोरी कांड के बाद पैदा हुए हालात से निपटने में लाल बहादुर शास्त्री की सूझबूझ ने उनका विश्वास जीत लिया था. शास्त्री भी कश्मीर के मुद्दे को बेहद नज़दीकी से देख रहे थे. वे उनके साथ थे. दूसरी तरफ़ एक शख्स और थे जो नेहरू के विरोधी होते हुए भी उन्हें इस मुद्दे पर समर्थन दे रहे थे. वे थे जयप्रकाश नारायण. और, तीसरे अहम व्यक्ति थे मीनू मसानी जो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) द्वारा गठित स्वतंत्रता पार्टी के सदस्य थे.

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिन आर्थिक नीतियों के विरोध के चलते राजाजी ने कांग्रेस से अलग होकर स्वतंत्रता पार्टी बनायीं थी उनके पीछे मीनू मसानी का हाथ था. मीनू मसानी खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे. विडंबना है कि देश की दोनों बड़ी पार्टियां नयी अर्थव्यवस्था का श्रेय लेने से नहीं चूक रही हैं. मसानी को भुला दिया गया है. खैर, मसानी के कहने पर ही राजाजी कश्मीर के मुद्दे पर नेहरू के समर्थन में आये.

राजाजी ने कश्मीर हल का बिलकुल नया प्लान दिया

दिल्ली में कुछ दिन ठहरने के बाद शेख़ अब्दुल्ला ने मद्रास जाकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) से मिलने का प्लान बनाया. उनके सफ़र का एक पड़ाव पूना भी था जहां वे बिनोबा भावे से मिले. ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि राजाजी ने कश्मीर हल का एक नया प्लान दिया और वह था हिंदुस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर का सम्मिश्रण. इसमें दोनों मुल्क कश्मीर की सुरक्षा और विदेश नीति के लिए ज़िम्मेदार होते. या फिर तीनों के बीच कॉन्फ़ेडरेशन बनाने की बात थी.

शेख़ अब्दुल्ला क्या सोचते थे?

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 50 के दशक में शेख़ अब्दुल्ला खुद को कश्मीर का रहनुमा समझते थे. पर 60 का दशक तक आते-आते वे महज़ मध्यस्थ की भूमिका निभाने की चाह रखने लगे. एक समय पर जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग उठाने वाले शेख़ अब समझने लगे थे कि ऐसा करने पर हिंदुस्तान में रहने वाले मुसलमानों और पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को तकलीफ़ का सामना करना पड़ सकता है. वे इस परिणाम को सोचकर सहम जाते थे और यही वे कश्मीर के अवाम को समझा भी रहे थे.

दूसरी तरफ़ उनका मन था कि जम्मू और लद्दाख हिंदुस्तान को दे दिए जाएं, पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर उसे और बची कश्मीर घाटी तो या तो उसे स्वायत्तता प्रदान की जाए या जनमत संग्रह करवाया जाए.

इसी सब जद्दोजहद के बीच वे पाकिस्तान के फौजी आमिर अय्यूब ख़ान से मिलने गए. ‘आतिश-ए-कश्मीर’ में ज़िक्र है कि जवाहर लाल नेहरू ख़ुद पाकिस्तान जाकर और अय्यूब ख़ान से मिलकर यह मसला हल करना चाहते थे, पर उनकी तबियत उन्हें रोक रही थी. शेख़ ने अय्यूब से इसरार किया कि वे दिल्ली आकर नेहरू से मिलें. वे राज़ी हो गए. नेहरू और शेख़ के मंसूबे तो नेक दिख रहे थे, लेकिन अय्यूब ख़ान का रुख जानना मुश्किल हो रहा था.

अफ़सोस कि 27 मई पहले आ गई

ग़ालिब का शेर है ‘मौत का दिन तो मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती.’ काश नेहरू कुछ और दिन रह गए होते. ये मुलाकातें होतीं, अंजाम तक पहुंचतीं. अयूब ख़ान हिंदुस्तान आ गए होते तो क्या कश्मीर का मुद्दा हल हो गया होता? अब कहना मुश्किल है. बहराल, 27 मई को शेख़ अब्दुल्ला पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद में थे जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के निधन की ख़बर सुनी. वे सन्न रह गए. रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि वे वहीं रो दिए. उन्होंने पाकिस्तान का बाकी का दौरा रद्द किया और पहली फुर्सत में सीधे दिल्ली आ गए. तीन मूर्ति भवन में जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के पार्थिव शरीर को देखा तो वे बच्चों की तरह बिलख पड़े. बड़ी मुश्किल से उन्हें संभाला गया.

नेहरू के बाद एक अध्याय, या कहें कि एक युग समाप्त हो गया था. इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष के कामराज पर ज़िम्मेदारी आ गयी कि वे देश को नेहरू का विकल्प दें. मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री आदि जैसे कई नामों पर विचार किया गया. कामराज और अन्य कांग्रेसियों को लालबहादुर शास्त्री पसंद आये.

जवाहर लाल नेहरू को गए अब छह दशक हो रहे हैं. कश्मीर आज भी ‘1948’ में ही जी रहा है. शेख़ ने सही कहा था, ‘नेहरू के बाद शायद ही कोई होगा जो इस मसले को हल कर पायेगा.’
(सौ. सत्याग्रह)

जवाहरलाल नेहरू अगर कुछ रोज़ और जी जाते तो क्या 1964 में ही कश्मीर का मसला हल हो जाता?
मौत से एक महीना पहले जवाहरलाल नेहरू कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला के साथ मिलकर दक्षिण एशिया के सबसे ज्वलंत मुद्दे को हल करने के बेहद क़रीब आ गए थे।

बात दो छोटे-छोटे जुमलों से शुरू की जाए जिनका इस किस्से से कुछ दूर का ही सही, पर राब्ता है. पंजाब में कहावत है ‘खाया-पीया लाहे दा, बाक़ी अहमद शाहे दा’. माने जो खा पी लिया वो अपना है. बाक़ी तो अहमद शाह अब्दाली ले जाएगा. वहीं, अफ़गानिस्तान में युसुज़ई माएं कहती हैं, ‘खुफता वाशिद, हरी आयद’ या ‘चुप श, हरी सिंह रघले.’ मतलब बच्चे, चुप हो जा, हरी सिंह (नलवा) आ रहा है. अब मुद्दे पर आते हैं.

1962 में चीन के साथ लड़ाई ने जवाहरलाल नेहरू को शारीरिक और मानसिक तौर पर तोड़ कर रख दिया था. वे अकसर बीमार रहने लगे थे. 27 मई, 1964 को वे हमेशा के लिए ख़ामोश हो गए. पर जाने से एक महीना पहले वे कश्मीर के लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला के साथ मिलकर दक्षिण एशिया के सबसे ज्वलंत मुद्दे को हल करने के बेहद क़रीब आ गए थे. वह मुद्दा था कश्मीर का. यह वह घटना थी जो होते-होते रह गयी।

कहानी कहां से शुरू होती है?

महाराजा रणजीत सिंह के बाद कश्मीर की राजगद्दी डोगरा वंश के हाथ आ गयी थी. डोगरा हिंदू थे, जबकि रियाया में ज़्यादातर मुसलमान थे. यही कश्मीर की विडंबना थी जो ऊपर दो जुमलों से कही गयी है. पहले अफ़ग़ानी अहमद शाह दुर्रानी की सरपरस्ती में उत्तरी कश्मीर तक आ गए थे. फिर सिख हरी सिंह नलवा की अगुवाई में कश्मीर से होते हुए ख़ैबर दर्रे तक पहुंच गए थे. और फिर, डोगरा कश्मीर के हुक्मरान बन गए. वहां की अवाम इन सब के बीच झूलती ही रही.

अगर थोड़ा और पहले जाकर चौदहवीं शताब्दी में झांकें तो पाएंगे कि कश्मीर की रियाया हिंदू थी. राजा भी हिंदू थे. मोहम्मद इशाक खान की अंग्रेजी में छपी बेहद दुर्लभ क़िताब, जिसे हिंदी में ‘समकालीन सूफ़ी संसार’ कह सकते हैं, में लिखा है कि कश्मीर में ब्राह्मणों का उत्पीड़न था. कश्मीरी सूफ़ी नुरुद्दीन ऋषि का हिंदू जनता पर गहरा असर हुआ. उन्होंने जात-पांत, ऊंच-नीच को ख़त्म करके एक समाज बनाने की बात कही. वे आगे लिखते हैं कि समाज का इस्लाम कुबूल करना बेहतर बदलाव की सतत प्रकिया के तहत हुआ न कि किसी मज़हब को कमतर बताकर.

आज सोशल मीडिया पर कुछ वर्ग जवाहर लाल नेहरू को मुसलमान बताकर तमाम तरह की भ्रांतियां फैलाता है, पर कभी यह नहीं बताता कि शेख़ अब्दुल्ला के वंशज पहले मुसलमान नहीं थे. बकौल सय्यैद तफ़ाज़ुल हुसैन, जिन्होंने शेख़ अब्दुल्ला के जीवन पर ‘आतिश-ए-कश्मीर’ लिखी है, ‘अल्लामा इकबाल के वंशजों की तरह शेख़ अब्दुल्ला के पूर्वज भी कश्मीरी पंडित थे.’ उनके वालिद का नाम राघो राव कौल बताया गया है.

जब नेहरू को ‘बोध’ हुआ कि कश्मीरियों के बिना मसला हल नहीं होगा

जनवरी, 1964 में हजरतबल दरगाह में हुई चोरी का मसला अपने आप ही हल हो गया था. इस दौरान कश्मीर की जनता ने जस तरह से आंदोलन किया उससे नेहरू समझ गए कि कश्मीर के मसले को अगर हल करना है तो अवाम को बीच में रखना होगा. और इसके लिए, शेख़ अब्दुल्ला से बेहतर कौन होता जो उनकी आवाज़ बनता. लिहाज़ा, अप्रैल, 1964 को शेख़ अब्दुल्ला जेल से रिहा किये गए. शेख़ की रिहाई पर पूरा कश्मीर झूम उठा था. लोगों की नज़र में वे ‘शेर-ए-कश्मीर’ थे.

नेहरू उनसे और पाकिस्तान से बातचीत को तैयार थे. तबीयत ख़राब होने के बावजूद वे बेहद तेज़ी से काम कर रहे थे. शायद वे समझ गए थे कि उनके पास अब वक्त कम है. वे जीते जी कश्मीर का एक स्थाई हल चाहते थे.

शेख़ अब्दुल्ला भी मानते थे कि जवाहर लाल नेहरू के रहते कश्मीर का मसला हल हो जाए तो बेहतर होगा. उनके (नेहरू) के जाने के बाद काफ़ी मुश्किल होगी. दोनों एक ज़माने में अच्छे दोस्त थे. पर उन्हें जेल भी नेहरू के इशारे पर हुई थी. शेख़ के जेल के दिनों में नेहरू ने अपने दोस्त के परिवार की मुकम्मल देखभाल करवाई थी.

शेख़ पर पाकिस्तान के साथ मिल जाने का इल्ज़ाम लगा

हालांकि शेख़ अब्दुल्ला पर से ‘कश्मीर साज़िश’ के तमाम इल्ज़ाम हटा दिये गए थे, पर रिहा होने के बाद कश्मीर की बक्शी ग़ुलाम मोहम्मद सरकार उन पर पाकिस्तानियों से मिल जाने का इल्ज़ाम बदस्तूर लगा रही थी. शेख़ कश्मीर का फ़ैसला अवाम के हाथों में छोड़ना चाहते थे. उनका कहना था कि कश्मीर उस औरत की मानिंद है जिसके दो शौहर हैं- हिंदुस्तान और पाकिस्तान. वे मानते थे कि कश्मीरियों के पास तीन रास्ते हैं – या तो पाकिस्तान में मिल जाएं, या हिंदुस्तान में या फिर अलग ही हो जाएं. पर उनका सबसे ज्यादा जोर इस पर था कि कश्मीरियों को डोगरा राज से निजात मिलनी चाहिए. और यह तभी संभव है जब वे हिंदुस्तान में रह जाएं.

‘आतिश-ए-चिनार’ में ज़िक्र है कि एक बार पाकिस्तान से आया एक शिष्टमंडल कश्मीर के पकिस्तान में न मिलने की सूरत में शेख़ अब्दुल्ला को दबी ज़बान में धमकी दे रहा था. तब शेख़ ने साफ़ लफ़्ज़ों में कहा, ‘कश्मीर हथियाने के लिए पाकिस्तान को लाशों पर से गुज़रना होगा और उनको कोई हक़ नहीं है कश्मीर के अंदरूनी मामलों में दख़ल देने का.’

कश्मीर मसले पर नेहरू को पार्टी में विरोध और धुर विरोधियों से समर्थन मिल रहा था

रिहाई के बाद शेख़ अब्दुल्ला अप्रैल में जवाहर लाल नेहरू से मिलने दिल्ली आये. तीन मूर्ति भवन उन दोनों की मुलाकात का गवाह बना. गुफ़्तगू के दौर चले. कई बार अफ़सरों के साथ तो कभी तन्हाई में. ताज्जुब की बात यह थी कि नेहरू किसी कांग्रेस नेता से ज़्यादा इस मसले पर अफ़सरों का भरोसा कर रहे थे.

दोनों एक दूसरे को समझने की कोशिशों में कामयाब होते दिख भी रहे थे. देश उम्मीदों से भर गया था. चीन से मिली हार के बाद नेहरु की पार्टी में स्थिति कुछ कमज़ोर हो गयी थी, सो उन पर सवाल उठ रहे थे. ख़ुद उनकी पार्टी के लोग इन मुलाकातों संशय की नज़र से को देख रहे थे. कांग्रेस के 27 सांसदों ने लिखित तौर पर उन्हें कश्मीर में जनमत संग्रह न कराने की हिदायत दी थी.

जनसंघ ने भी नेहरू का तीखा विरोध किया

संघ के प्रमुख नेता बलराज मधोक ने तो यहां तक कह डाला कि शेख अब्दुल्ला से बातचीत का मतलब होगा असम, गोवा और केरल में हिंदुस्तान के विरोध के सुर तेज़ होना. उनका कहना था कि इन सब राज्यों के अलगाववादी नेता कश्मीर के साथ होने वाले समझौते पर नजर लगाए बैठे हुए हैं. उधर, जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय बेहद तीखे प्रहार कर रहे थे. अटल बिहारी वाजपेयी ने शेख अब्दुल्ला पर कश्मीर को अलग मुल्क बनवाने का इल्ज़ाम लगाया.

शास्त्री, जेपी और मीनू मसानी का साथ

कांग्रेस के भीतर नेहरू अकेले नहीं थे. हज़रतबल चोरी कांड के बाद पैदा हुए हालात से निपटने में लाल बहादुर शास्त्री की सूझबूझ ने उनका विश्वास जीत लिया था. शास्त्री भी कश्मीर के मुद्दे को बेहद नज़दीकी से देख रहे थे. वे उनके साथ थे. दूसरी तरफ़ एक शख्स और थे जो नेहरू के विरोधी होते हुए भी उन्हें इस मुद्दे पर समर्थन दे रहे थे. वे थे जयप्रकाश नारायण. और, तीसरे अहम व्यक्ति थे मीनू मसानी जो चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) द्वारा गठित स्वतंत्रता पार्टी के सदस्य थे.

आपको जानकर आश्चर्य होगा कि जिन आर्थिक नीतियों के विरोध के चलते राजाजी ने कांग्रेस से अलग होकर स्वतंत्रता पार्टी बनायीं थी उनके पीछे मीनू मसानी का हाथ था. मीनू मसानी खुली अर्थव्यवस्था के पक्षधर थे. विडंबना है कि देश की दोनों बड़ी पार्टियां नयी अर्थव्यवस्था का श्रेय लेने से नहीं चूक रही हैं. मसानी को भुला दिया गया है. खैर, मसानी के कहने पर ही राजाजी कश्मीर के मुद्दे पर नेहरू के समर्थन में आये.

राजाजी ने कश्मीर हल का बिलकुल नया प्लान दिया

दिल्ली में कुछ दिन ठहरने के बाद शेख़ अब्दुल्ला ने मद्रास जाकर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) से मिलने का प्लान बनाया. उनके सफ़र का एक पड़ाव पूना भी था जहां वे बिनोबा भावे से मिले. ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ में रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि राजाजी ने कश्मीर हल का एक नया प्लान दिया और वह था हिंदुस्तान, पाकिस्तान और कश्मीर का सम्मिश्रण. इसमें दोनों मुल्क कश्मीर की सुरक्षा और विदेश नीति के लिए ज़िम्मेदार होते. या फिर तीनों के बीच कॉन्फ़ेडरेशन बनाने की बात थी.

शेख़ अब्दुल्ला क्या सोचते थे?

रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि 50 के दशक में शेख़ अब्दुल्ला खुद को कश्मीर का रहनुमा समझते थे. पर 60 का दशक तक आते-आते वे महज़ मध्यस्थ की भूमिका निभाने की चाह रखने लगे. एक समय पर जम्मू-कश्मीर में जनमत संग्रह की मांग उठाने वाले शेख़ अब समझने लगे थे कि ऐसा करने पर हिंदुस्तान में रहने वाले मुसलमानों और पश्चिम और पूर्वी पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं को तकलीफ़ का सामना करना पड़ सकता है. वे इस परिणाम को सोचकर सहम जाते थे और यही वे कश्मीर के अवाम को समझा भी रहे थे.

दूसरी तरफ़ उनका मन था कि जम्मू और लद्दाख हिंदुस्तान को दे दिए जाएं, पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर उसे और बची कश्मीर घाटी तो या तो उसे स्वायत्तता प्रदान की जाए या जनमत संग्रह करवाया जाए.

इसी सब जद्दोजहद के बीच वे पाकिस्तान के फौजी आमिर अय्यूब ख़ान से मिलने गए. ‘आतिश-ए-कश्मीर’ में ज़िक्र है कि जवाहर लाल नेहरू ख़ुद पाकिस्तान जाकर और अय्यूब ख़ान से मिलकर यह मसला हल करना चाहते थे, पर उनकी तबियत उन्हें रोक रही थी. शेख़ ने अय्यूब से इसरार किया कि वे दिल्ली आकर नेहरू से मिलें. वे राज़ी हो गए. नेहरू और शेख़ के मंसूबे तो नेक दिख रहे थे, लेकिन अय्यूब ख़ान का रुख जानना मुश्किल हो रहा था.

अफ़सोस कि 27 मई पहले आ गई

ग़ालिब का शेर है ‘मौत का दिन तो मुअय्यन है, नींद क्यों रात भर नहीं आती.’ काश नेहरू कुछ और दिन रह गए होते. ये मुलाकातें होतीं, अंजाम तक पहुंचतीं. अयूब ख़ान हिंदुस्तान आ गए होते तो क्या कश्मीर का मुद्दा हल हो गया होता? अब कहना मुश्किल है. बहराल, 27 मई को शेख़ अब्दुल्ला पाकिस्तान के मुजफ्फराबाद में थे जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के निधन की ख़बर सुनी. वे सन्न रह गए. रामचंद्र गुहा लिखते हैं कि वे वहीं रो दिए. उन्होंने पाकिस्तान का बाकी का दौरा रद्द किया और पहली फुर्सत में सीधे दिल्ली आ गए. तीन मूर्ति भवन में जब उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के पार्थिव शरीर को देखा तो वे बच्चों की तरह बिलख पड़े. बड़ी मुश्किल से उन्हें संभाला गया.

नेहरू के बाद एक अध्याय, या कहें कि एक युग समाप्त हो गया था. इंडियन नेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष के कामराज पर ज़िम्मेदारी आ गयी कि वे देश को नेहरू का विकल्प दें. मोरारजी देसाई, लाल बहादुर शास्त्री आदि जैसे कई नामों पर विचार किया गया. कामराज और अन्य कांग्रेसियों को लालबहादुर शास्त्री पसंद आये.

जवाहर लाल नेहरू को गए अब छह दशक हो रहे हैं. कश्मीर आज भी ‘1948’ में ही जी रहा है. शेख़ ने सही कहा था, ‘नेहरू के बाद शायद ही कोई होगा जो इस मसले को हल कर पायेगा.’
(सौ. सत्याग्रह)

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