सुप्रीम कोर्ट ने पूछा कि अगर किसी व्यक्ति ने बिहार जाति सर्वेक्षण के दौरान जाति या उप-जाति का विवरण प्रदान किया तो इसमें क्या नुकसान है, जबकि राज्य की ओर से किसी व्यक्ति का डाटा प्रकाशित नहीं किया जा रहा था। शीर्ष अदालत पटना हाईकोर्ट के 1 अगस्त के फैसले को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। हाईकोर्ट ने जाति सर्वेक्षण को आगे बढ़ाया था। इनमें से कुछ याचिकाओं में दावा किया गया है कि यह अभ्यास लोगों की निजता के अधिकार का उल्लंघन है।
जस्टिस संजीव खन्ना और जस्टिस एसवीएन भट्टी की पीठ ने पूछा, यदि कोई अपनी जाति या उपजाति का नाम बता दे और वह डाटा प्रकाशित न हो तो इसमें बुराई क्या है? जो जारी करने की मांग की जा रही है वह संचयी आंकड़े हैं। यह निजता के अधिकार को कैसे प्रभावित करता है? पीठ ने याचिकाकर्ताओं में से एक एनजीओ ‘यूथ फॉर इक्वैलिटी’ के वकील सीएस वैद्यनाथन से पूछा, आपके अनुसार कौन से प्रश्न (सर्वेक्षण के लिए तैयार प्रश्नावली में) संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के विपरीत हैं? सुनवाई की शुरुआत में बिहार सरकार के वकील श्याम दीवान ने पीठ को बताया कि जाति सर्वेक्षण 6 अगस्त को पूरा हो गया था और एकत्रित डाटा 12 अगस्त तक अपलोड किया गया था। इस पर पीठ ने दीवान से कहा कि वह याचिकाओं पर नोटिस जारी नहीं कर रही है क्योंकि तब अंतरिम राहत के बारे में सवाल उठेगा और सुनवाई नवंबर या दिसंबर तक टल जाएगी।
याचिकाकर्ताओं में से एक का प्रतिनिधित्व कर रही वरिष्ठ वकील अपराजिता सिंह ने कहा, हम जानते हैं कि प्रक्रिया पूरी हो चुकी है लेकिन डाटा के प्रकाशन पर रोक लगाने के लिए बहस करेंगे। पीठ ने कहा कि वह तब तक किसी चीज पर रोक नहीं लगाएगी जब तक कि प्रथम दृष्टया कोई मामला न बन जाए क्योंकि हाईकोर्ट का फैसला राज्य सरकार के पक्ष में है। पीठ ने वकील से कहा, चाहे आप इसे पसंद करें या नहीं, डाटा अपलोड कर दिया गया है।