*”पड़ोसी कहते संस्कारी बेटा बिगड़ गया”*
बात 1971 की है जब फ़िल्म शर्मीली रिलीज़ हुई थी. शशि कपूर तो पहले से हिट थे लेकिन विलेन बने रंजीत के लिए ये बड़ा ब्रेक था.
वही रंजीत जिसे आज की पीढ़ी फ़िल्म हाउसफुल-4 से पहचानती है.
रंजीत का परिवार भी शर्मिली देखने आया. जब उन्होंने देखा कि उनका बेटा हीरोइन राखी के साथ बदतमीज़ी कर रहा है, उनके कपड़े फाड़ रहा है तो वो फ़िल्म बीच में ही छोड़कर चले गए.
घर जाकर उनकी मां ख़ूब रोईं कि बेटे ने परिवार का नाम बदनाम कर दिया और पिता अमृतसर जाकर किसी को चेहरा दिखाने लायक नहीं रहे.
आख़िरकार हुआ ये कि रंजीत, राखी को अपने घर लेकर आए और उन्हें परिवार के सामने यह यकीन दिलाना पड़ा कि राखी को उनसे कोई शिकायत नहीं है और वो सिर्फ़ एक्टिंग थी. तब भी उनकी मां राखी से माफ़ी मांगती रहीं.
ये किस्सा ख़ुद रंजीत ने किताब बैड मेन: बॉलीवुड्स आइकॉनिक विलेन्ज़ में साझा किया है.
पड़ोसी कहते संस्कारी बेटा बिगड़ गया: गुलशन ग्रोवर
प्राण, जीवन, अजीत, प्रेम चोपड़ा, केएन सिंह, रंजीत, अमरीश पुरी, डैनी, अनुपम खेर, अमजद ख़ान, शक्ति कपूर से लेकर गुलशन ग्रोवर तक ढेरों नाम खलनायकों की फ़ेहरिस्त में शामिल हैं.
तो आज बात हिंदी फ़िल्मों के खलनायकों की, ख़ासकर 12 जुलाई को जब प्राण साहब की बरसी थी और 27 जुलाई को अमजद ख़ान की.
पर्दे पर दिखाया गया इन खलनायकों का डरावना अवतार पहले इतना असरदार हुआ करता था कि असल ज़िंदगी में भी लोगों में खलनायकों का ख़ौफ़ रहता था और परिवारवालों में नाराज़गी.
गुलशन ग्रोवर किताब में बताते हैं, “1983 में आई फ़िल्म अवतार में मैं अपने मां-बाप को पैसों के लिए निकाल देता हूं. मेरे पड़ोसी जब फ़िल्म देखकर आए तो रोज़ मेरे घर पर बोलते कि तुम्हारा संस्कारी बेटा बिगड़ा हुआ नाशुक्रा बेटा बन गया है.”
“और वो दिन दूर नहीं जब वो पैसे के लिए असल मां-बाप को घर से निकाल देगा. मेरी मां को शुरू में फ़िल्मों की समझ नहीं थी और वो बहुत रोती थीं.
शायर प्रेम चोपड़ा
पर्दे पर भले ही ये विलेन क्रूर, निर्दय और शातिर मिज़ाज हों पर असल ज़िंदगी में इनकी शख़्सियत के कई दिलचस्प पहलू हैं और सब अपने अपने हिस्से का संघर्ष करके यहां तक पहुंचे हैं.
2023 में फ़िल्म एनिमल में दिखे प्रेम चोपड़ा अच्छे ख़ासे शायर हैं और प्रेम आवारा के नाम से जाने जाते हैं.
फिल्मों में संघर्ष करते हुए वो साथ-साथ कई सालों तक चोरी छिपे टाइम्स ऑफ़ इंडिया के सर्कुलेशन विभाग में काम करते रहे ताकि रोज़ी रोटी चलते रहे जब तक कि वो कौन थी (1964) फ़िल्म से वो बतौर विलेन हिट नहीं हो गए.
रंजीत काफ़ी अच्छे पेंटर हैं और कॉलेज की फ़ुटबॉल टीम के उम्दा गोलकीपर थे. एनडीए का इम्तिहान पास करने के बाद वहां से निकाले गए रंजीत हिंदी फ़िल्मों के विलेन बन गए.
गायक डैनी, रोज़गार मंत्रालय के अमरीश पुरी
वहीं डैनी अच्छे गायक हैं और गायक बनने के इरादे से ही निकले थे. डैनी ने किशोर कुमार, आशा भोसले से लेकर लता मंगेशकर जैसे नामी गायकों के साथ कई हिंदी फ़िल्मों में गाया है.
फ़िल्मों में नाम कमाने से पहले करीब 20 साल तक अमरीश पुरी श्रम और रोज़ग़ार मंत्रालय में काम और साथ में थिएटर करते रहे. 1979 में तो उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका था.जबकि उनका फ़िल्मी करियर बाद में पूरी तरह परवान चढ़ा.
वहीं फोटोग्राफ़ी के शौकीन प्राण एक फ़ोटोग्राफ़र के असिसटेंट का काम किया करते थे, फिर पंजाबी फ़िल्मों को हिट हीरो बने और बाद में विलेन. लेकिन विलेन की छवि से परे इनकी अलग ही शख़्सियत सामने आती है.
राज कपूर से झगड़ा और प्राण साब ने खिलाई चॉकलेट
कई साल पहले वरिष्ठ फ़िल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे ने मुझे बताया था, “एक दिन अचानक प्राण साहब ने मुझे बुलाया और पूछा कि क्या तुम राज कपूर के तीनों बेटों- ऋषि, रणधीर और राजीव को मेरे घर लेकर आ सकते हो क्योंकि मैं उनके साथ एक शाम बिताना चाहता हूं.
मैने ऐसा ही किया. बाद में प्राणजी ने मुझे बताया कि दरअसल फ़िल्म बॉबी की शूटिंग के दौरान उनका राज कपूर से कुछ झगड़ा हो गया था जिसके लिए उन्हें मलाल था.
उसी की भरपाई के लिए प्राणजी ने राज कपूर के बच्चों को बुलाया और उनके साथ समय बिताया. ये भी उनका एक पहलू था.”
कहते हैं कि फ़िल्म में विलेन जितना तगड़ा और असरदार होता है, हीरो आख़िर में उतना ही हिट होकर निकलता है. साल दर साल विलेन का स्वरूप, लुक, तेवर बदलते रहे हैं.
50 के दशक में साहूकार विलेन हुआ करता था. 1957 में आई मदर इंडिया का सुखीलाला इसकी मिसाल है जिसका रोल अभिनेता कन्हैयालाल ने किया था. बाद में सिगरेट के धुएं से छल्ले बनाते प्राण जैसे स्टाइलिश विलेन आ गए.
अपने ज़माने के मशहूर विलेन अजीत पर किताब ‘अजीत द लायन’ लिखने वाले इक़बाल रिज़वी ने कुछ अरसा पहले मिडिया से बात की थी .
उनका कहना था, “एक ज़माने में विलेन डाकू होते थे या उससे भी पहले ज़मींदार या गांव का महाजन. लेकिन 70 के दशक में जब अजीत जैसे एक्टर विलेन बने तो भारतीय समाज बदलने लगा था.
तब एक ऐसे विलेन से हमारा परिचय होता है जो शालीन है, बात-बात पर गोली नहीं चलाता, सूट पहनता है, बो लगाता है. वो बहुत आराम और सुकून से बात करता है. उनको देख कर ये यकीन नहीं होता था कि ये आदमी इतना शैतान हो सकता है.”
खलनायकों की बात को आगे बढ़ाएं तो प्रेम चोपड़ा जहां राजेश खन्ना की काट बने तो 80 के दशक में रंजीत अमिताभ बच्चन की.
रंगीन शर्ट, शर्ट के बटन नीचे तक खुले हुए,गले में सोने का लॉकेट और ये विलेन लूट खसूट करने से ही नहीं बल्कि हीरोइन के साथ बदसलूकी करने से भी नहीं चूकते थे.
इसी बीच डॉक्टर डैंग (कर्मा ) और शाकाल (शान) जैसे डॉन और अपराधी भी थे जिनके पास नई-नई तरह के गैजेट्स होते थे. स्क्रीन पर इनकी एंट्री ही बता देती थी कि अब सब ग़लत होने वाला है.
यहां बॉबी का वो सीन याद आता है जहां प्रेम चोपड़ा फ़िल्म के आख़िर में एंट्री लेते हैं. डिंपल को देखकर जब वो बोलते हैं प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं.
वहीं गब्बर सिंह के बिना तो शोले की कल्पना भी नहीं की जा सकती लेकिन 1992 में महज़ 51 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई. इन सब के बीच सिक्किम से आए और एकदम अलग दिखने वाले डैनी ने भी धर्मात्मा, हम जैसी फ़िल्मों में जगह बनाई.
वैसे समय के साथ कई खलनायकों ने पॉज़िटिव या चरित्र किरदार निभाने शुरू कर दिए थे. कादर ख़ान और शक्ति कपूर (क्राइम मास्टर गोगो) के आने से कॉमिक विलेन पर्दे पर आए.
हालांकि रोशमिला भट्टाचार्य मानती हैं कि विलेन को अच्छा एक्टर तो होना ही चाहिए लेकिन असल विलेन वही है जो मन में ख़ौफ़ और दिमाग़ में घिन पैदा करे .
कभी लोगों में ख़ौफ़ पैदा करने वाले प्राण बाद में फ़िल्म उपकार (1965) के कस्मे वादे प्यार वफ़ा वाले गाने में मलंग चाचा बन सबको रुला गए.
वैसे जितने ये खलनायक मशूहर थे, उतने ही इनके डायलॉग भी मशहूर होते थे. हीरो के हों न हो, विलेन की कोई न कोई पंच लाइन फ़िल्म में ज़रूर होती थी.
फिर वो अजीत का ये डायलॉग ‘लेकिन एक बात मत भूलिए डीएसपी साहब कि सारा शहर मुझे लायन के नाम से जानता है. और इस शहर में मेरी हैसियत वही है जो जंगल में शेर की’ हो, या प्रेम चोपड़ा का संवाद, मैं वो बला हूं जो पत्थर को शीशे से तोड़ता हूं.
अमजद ख़ान को मिला बेस्ट कॉमिक रोल अवॉर्ड
लेकिन खलनायिकी से परे, इन खलनायकों की ज़िंदगी के कई आयाम हैं. शुरू में बात अमजद ख़ान की हुई थी. तो उन्हीं से ख़त्म करते हैं.
विलेन बनने से पहले अमजद ख़ान चाइल्ड एक्टर थे, के आसिफ़ के सहायक निर्देशक थे, वह एक्टर्स गिल्ड के अध्यक्ष भी रहे जिन्होंने फ़िल्म इंडस्ट्री के कई विवाद सुलझाए और कई फ़िल्मों के डायरेक्टर भी रहे.
नेगेटिव रोल के लिए तो नहीं लेकिन बेस्ट सहायक एक्टर (दादा और याराना) और बेस्ट कॉमिक रोल (मां कसम) के लिए उन्हें तीन बार फ़िल्मफ़ेयर अवॉर्ड मिला