मुझको पहली बार दनियावां (पटना के पास एक जगह) में मरनी (मौत) पर नाचने के लिए बुलाया गया था. मैं शॉक में थी कि भला मरनी पर कौन सा नाच होता है. लेकिन वहां लोगों ने कहा सब होता है. हमें बताया जाता है कि मरने वाले की तमन्ना थी कि उसके मरने पर नचनिया नाचे.”
काजल और रिया दोनों ही पेशेवर डांसर हैं. ये लोग शादी, तिलक, मुंडन, जन्मदिन, शादी की सालगिरह के मौके से लेकर अब मौत होने पर भी नाचती हैं. बिहार में इसे ‘ बाईजी का नाच’ भी कहा जाता है.
मौत का जश्न
मृत्यु जैसे शोक में ‘बाईजी का नाच’, ये कई लोगों को चौंकाने वाला लग सकता है, लेकिन बिहार के अंदरूनी हिस्सों में बीते कुछ सालों में ये एक नए ट्रेंड के तौर पर उभर रहा है.
किसी उम्रदराज़ शख़्स की मौत होने पर शवयात्रा को बैंड बाजे के साथ निकालने की परंपरा पहले भी रही है, लेकिन डांस करवाने का ये चलन अपेक्षाकृत नया है.
पटना की कोमल मिश्रा ने 15 साल की उम्र से शादियों में डांस परफ़ॉर्म करना शुरू कर दिया था. आज वो 32 साल की हो चुकी हैं. वो कहती हैं कि बीते सात-आठ साल से उन्हें मृत्यु के मौके पर भी नाचने के लिए बुलाया जाने लगा है.
कोमल कहती हैं, “मरनी हो या शादी सबमें एक जैसे ही नाचना पड़ता है. अगर बीच में कमीशन लेने वाला नहीं है तो एक रात का छह हज़ार रुपए तक मिलता है. रात में आठ – नौ बजे नाचना शुरू होता है जो सुबह चार-पांच बजे तक चलता है. पहले हिंदी के गाने बजते हैं. बारह बजते-बजते भोजपुरी के गाने बजने लगते हैं.”
कोमल कहती हैं, “लोगों की डिमांड रहती है कि लहंगे से शॉर्ट्स में आओ. लोग पैसा दिखाकर नीचे बुलाते हैं और उनकी गोद में बैठकर पैसा लेना पड़ता है. ये सब कुछ शादी, मरनी सब में होता है. कोई अंतर नहीं है.”
लंबा जीवन के लिए सेलिब्रेशन परंपरा…
पूर्व प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कहते हैं, “पहले लोग बहुत कम जीते थे. ऐसे में अगर कोई लंबा जीवन जीता था तो उसके परिजनों के लिए ये सेलिब्रेशन का विषय होता था. इसलिए शव यात्रा के साथ बैंड-बाजा, हाथी, घोड़ा, ऊंट, पैसा लुटाते, फूल बरसाते लोग जाते थे. जो अब भी दिखता है.”
हालांकि, बैंड-बाजे से इतर अब डांसर्स को बुलाया जाने लगा और लोगों के पास इसके तर्क भी है. पटना से सटे फतुहा की रहने वाली जनता देवी के देवर जगदीश राम की मृत्यु पर भी नाचने का कार्यक्रम आयोजित किया गया था.
जनता देवी कहती हैं, “देवर मरे तो उनके समधी ने आकर घरवालों से नाचने वाली को बुलाने को कहा. उनका कहना था कि मरने वाले को नाच का प्रोग्राम करवाकर अंतिम विदाई दी जाए. उनके पास पैसा था तो उन्होंने नाच करवा लिया. हम लोग कैसे करा सकते हैं?
”समाज के लिए ठीक नहीं’
समाजशास्त्री इस चलन को समाज के लिए ठीक नहीं मानते. प्रोफ़ेसर पुष्पेंद्र कहते हैं, “ये पूरी तरह से नया मास कल्चर है, जिसमें लोक संगीत, पॉपुलर के साथ साथ अन्य दूसरे कल्चर मिल रहे हैं.”
तो आखिर इसके नतीजे क्या होंगे? इस सवाल पर पुष्पेंद्र कहते हैं, “मौत और जीवन का फ़र्क अगर हम यूं ही मिटाते जाएंगे तो पश्चाताप, हिंसा के प्रति घृणा, मृत्यु के बाद सौम्य–संयत व्यवहार के मूल्य हम खोते जाएंगे. इससे समाज ज़्यादा हिंसक बनेगा.”