लडक़ी हूं लड़ सकती हूं….

लडक़ी हूं लड़ सकती हूं….

भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान राहुल गांधी अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी पहुंचे, और वहां की छात्राओं के साथ उनकी बातचीत हुई। जाहिर है कि किसी जागरूक विश्वविद्यालय की अल्पसंख्यक वर्ग की छात्राओं को जब बात करने का मौका मिलेगा, तो वे महिलाओं के हक को लेकर कई तरह के सवाल करेंगी। राहुल देश के प्रमुख नेताओं से एक पीढ़ी कम उम्र के भी हैं, और इसलिए युवा पीढ़ी के साथ उनकी बातचीत कुछ अधिक स्वाभाविक होती है। छात्राओं ने उनसे पूछा कि अगर वे प्रधानमंत्री बनते हैं तो महिलाओं के हिजाब पहनने के मुद्दे पर उनकी क्या राय रहेगी? राहुल ने कहा कि महिलाएं क्या पहनती हैं ये उनका हक है, उन्हें क्या पहनना है या क्या नहीं पहनना है ये उनका फैसला है। उन्होंने कहा कि उन्हें यह नहीं लगता कि किसी और को यह तय करना चाहिए कि महिलाएं क्या पहनें। इसके साथ-साथ राजनीति में महिलाओं की भागीदारी पर जब राहुल से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि राजनीति और कारोबार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व पूरी तरह से नहीं दिखता है, इसके लिए सभी राजनीतिक दलों को सोचना होगा कि वे ज्यादा से ज्यादा महिला उम्मीदवारों को मौका दें, देश के राजनीतिक ढांचे से महिलाओं को जोडऩा होगा। राहुल का कहना था कि स्थानीय स्तर पर महिलाओं की फिर भी राजनीति में मौजूदगी दिखती है, वे प्रधान या पार्षद के स्तर तक पहुंच जाती हैं, लेकिन इससे ऊपर जब विधायक या सांसद बनने की बारी आती है तो महिलाएं बहुत कम दिखती हैं, ऐसे में महिलाओं को प्रोत्साहित करना होगा।

राहुल की कही हुई बातें तो अच्छी हैं, लेकिन देश की राजनीति में महिलाओं को हक देने की बातें ही होती रहती हैं। हम दो प्रमुख पार्टियों की बात करें, तो कांग्रेस लंबे समय तक सत्ता पर रहते हुए भी महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं करवा पाई थी। दूसरी तरफ मोदी सरकार ने यह कानून तो बनवा दिया, लेकिन उसके साथ इतनी सारी शर्तें जुड़ी हुई हैं कि 2029 का आम चुनाव भी शायद महिला आरक्षण के बिना होगा। कांग्रेस ने उत्तरप्रदेश के विधानसभा के चुनाव में प्रियंका गांधी की लीडरशिप में, लडक़ी हूं लड़ सकती हूं का नारा लगाया था। और अपनी घोषणा के मुताबिक 40 फीसदी सीटों पर महिला उम्मीदवार भी बनाए थे। लेकिन यह बात पहले से तय थी कि उंगलियों पर गिने जाने लायक ही जीत कांग्रेस पार्टी की होगी, इसलिए कांग्रेस की उस घोषणा का नारे से अधिक कोई मतलब नहीं था। दूसरी तरफ यूपी चुनाव के तुरंत बाद देश में जहां-जहां भी चुनाव हुए, कांग्रेस को और किसी प्रदेश में लडऩे लायक लड़कियां दिखी ही नहीं, और कहीं वे 40 फीसदी सीटों की चर्चा भी नहीं हुई। हमारा ख्याल है कि महिलाओं को टिकट देने में कांग्रेस 20 फीसदी के आसपास ही थम गई थी। महिला आरक्षण लागू होने के पहले भी कोई पार्टी अगर चाहे तो वह खुद होकर सौ फीसदी सीटें भी महिला उम्मीदवारों को दे सकती है, लेकिन कांग्रेस ने न 40 फीसदी सीटें दीं, न 33 फीसदी। भाजपा ने भी महिला आरक्षण विधेयक पास करवाने के बाद भी एक सैद्धांतिक ईमानदारी के आधार पर भी ऐसा नहीं किया।

अब राहुल ने स्थानीय राजनीति में महिलाओं के दिखने की जो बात कही है, वह सही है। छत्तीसगढ़ जैसे बहुत से राज्य हैं जहां पंचायतों में 50 फीसदी सीटें महिला पंच-सरपंच के लिए आरक्षित हैं। मतलब यह कि वहां जाति का आरक्षण होने के अलावा महिला आरक्षण भी लागू होता है। ऐसे दोहरे आरक्षण के बाद भी छोटे-छोटे गांव में भी हर पार्टी को उम्मीदवार बनाने लायक महिला मिल जाती हैं। तो फिर ऐसा क्या है कि विधानसभा और लोकसभा के स्तर पर महिला उम्मीदवार न मिलने का रोना रोया जाता है? एक विधानसभा के भीतर सैकड़ों महिला पंच-सरपंच, और सैकड़ों पार्षद हो सकती हैं, फिर इनके बीच से तो आसानी से महिला उम्मीदवार हर पार्टी को मिल सकती है। राहुल गांधी पूरे देश में जिस किस्म की सही राजनीति का झंडा लेकर घूम रहे हैं, क्या यह सही राजनीति नहीं होती कि आने वाले आम चुनाव में कांग्रेस 40 या 33 फीसदी महिला आरक्षण अपनी टिकटों पर ही लागू करती? राहुल ने महिला आरक्षण विधेयक चर्चा के दौरान मोदी सरकार से कहा भी था कि इस विधेयक को जनगणना के बाद के डी-लिमिटेशन से जोडक़र नहीं रखना चाहिए, और अगले दिन से तुरंत ही लागू कर देना चाहिए। ऐसी सलाह देने वाले राहुल की पार्टी के सामने आज भी यह मौका है कि महिला आरक्षण लागू होने के पहले ही उनकी पार्टी एक तिहाई सीटों पर आरक्षण लागू करे। अगर कोई सिद्धांत है, तो उसका कानून बनकर सामने आना जरूरी हो, ऐसा तो नहीं है।

हमारी कांग्रेस और भाजपा जैसी दोनों बड़ी पार्टियों से, और इनके गठबंधनों से यह उम्मीद है कि वे आम चुनाव 33 फीसदी महिलाओं को टिकट दें। अगर कोई एक पार्टी ऐसी पहल करती है, तो देश की आधी मतदाताओं के बीच उसकी तस्वीर बेहतर बनेगी कि कानून पर अमल का दिन आने के पहले ही उस पार्टी ने महिलाओं को यह हक दिया है। और इससे पार्टी को एक तजुर्बा भी होगा कि एक तिहाई महिलाओं के साथ चुनाव कैसे लड़ा और जीता जा सकता है। देश के लोकतंत्र को कानून की तंग सीमाओं से ऊपर निकलना भी सीखना चाहिए। जनता के बीच से भी राजनीतिक दलों के लिए ऐसी मांग होनी चाहिए।

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