ब्यूरोक्रेसी में ही यह मानने वालों की कमी नहीं कि छत्तीसगढ़ के आईएएस सेंट्रल डेपुटेशन पर नहीं जाना चाहते क्योंकि, दिल्ली में काम करना पड़ता है। आप उंगलियों पर गिन कर देख लीजिए, पुराने समयों में पांच आईएएस भी डेपुटेशन पर नहीं होते थे। दरअसल, दिल्ली में सिकरेट्री भी बायोमेट्रिक में अपना थंब लगाते हैं। जबकि, वे राज्यों के चीफ सिकरेट्री के समकक्षा होते हैं। वहां नौ बजे दफ्तर पहुंचने का टाईम है, लौटने का नहीं। जो अफसर अभी दिल्ली से लौटकर आए हैं, उनसे आप पूछ लीजिए वहां किस तरह काम होता है। कलेक्टर लेवल के अफसरों को गाड़ी शेयर करके ऑफिस आना पड़ता है। ज्वाइंट सिकरेट्री को एक गाड़ी मिलती है। मेम साहबों और बच्चों के लिए कोई व्हीकल नहीं। जबकि, छत्तीसगढ़ में किसी भी आईएएस के पास तीन से कम गाड़ी नहीं होती। अब सुनने में आ रहा कि बायोमेट्रिक सिस्टम लगाने के बाद जीएडी गाड़ियों की पड़ताल कराने वाली है…
किसके पास कितनी गाड़ियां हैं। खजाने की स्थिति को लेकर वित्त महकमा भी चिंतित है। असल में, विभागीय पुल से अफसरों को एक ही गाड़ी मिलती है, उनके विभाग में बोर्ड और निगम होते हैं, उनसे 50 हजार से लेकर 75 हजार तक किराये पर वे गाड़ियां मंगवा लेते हैं। इसका बोझ आखिर जनता पर ही पड़ता है। मगर ये जीएडी की ज्यादती होगी… दिल्ली की बात अलग है। दो इंच जमीन से उपर रहने वाले नौकरशाहों से एक तो हाजिरी लगवाई जाएगी, और उपर से गाड़ियों की निगरानी, तो फिर क्या मतलब उनके आईएएस बनने का? आखिर कुछ ही लोग तो जनसेवा या कुछ कर गुजरने के लिए आईएएस बनते हैं, बाकी को आप
देख ही रहे हैं…।