पान या चाय की दुकान हो, ट्रेन में बैठे यात्री हो या बादल छूता विमान हो. नरेंद्र मोदी के समर्थकों के बीच बीते सालों में सवाल एक ही रहा- अगर मोदी नहीं तो कौन?
पहले ये सवाल पूछा जाता था कि विपक्ष में कौन है जो मोदी की जगह ले सके, अब ये भी पूछा जाने लगा है कि बीजेपी में कौन है जो उनकी जगह ले सकता है.
तीसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी की उम्र अगले साल 75 को छू लेगी.
बीजेपी का 400 पार का ख़्वाब टूट चुका है.
तो क्या इन चुनावी नतीजों के बाद मंथन कर रही बीजेपी में अब नए वारिस के बारे में चर्चा शुरू हो रही है? बीजेपी के अंदर नरेंद्र मोदी का वारिस कौन हो सकता है और इसमें आरएसएस यानी संघ की भूमिका क्या हो सकती है?
संघ की भूमिका इसलिए भी अहम है क्योंकि जानकारों के मुताबिक- जब बीजेपी कमज़ोर होती है, तब संघ की भूमिका पार्टी में बढ़ जाती है.
ये सवाल तब और अहम हो जाते हैं जब कई राजनीतिक जानकारों और घटनाक्रमों ने इन अटकलों को हवा दी है कि योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बीच राजनीतिक रस्साकशी चल रही है.
75 की उम्र में रिटायरमेंट वाली बात कहां से आई?
2014 में जब नरेंद्र मोदी पीएम बने तो लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे शीर्ष नेताओं को संसदीय बोर्ड या कैबिनेट में जगह नहीं दी गई. दोनों नेताओं को जगह तो मिली, मगर मार्गदर्शक मंडल में. आडवाणी तब 86 और जोशी 80 साल के थे.
जून 2016 में मध्य प्रदेश कैबिनेट विस्तार के दौरान 75 पार बाबूलाल गौर और सरताज सिंह को मंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा, इसी तरह 80 पार पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन को भी कोई ज़िम्मेदारी नहीं दी गई, हिमाचल के दिग्गज नेता शांता कुमार भी इसी तरह किनारे हो गए.
अमित शाह ने तब कहा था, “पार्टी में न तो कोई ऐसा नियम है और न ही परंपरा कि 75 साल की आयु पार कर चुके नेताओं को चुनाव लड़ने की अनुमति न दी जाए”.
कर्नाटक के येदियुरप्पा इस मामले में एक मिसाल थे जो 80 पार होने के बाद भी राज्य में बीजेपी की कमान संभाल रहे
2019 के लोकसभा चुनाव में 91 साल के आडवाणी और 86 साल के जोशी को बीजेपी ने टिकट नहीं दिया था.
अप्रैल 2019 में द वीक को दिए इंटरव्यू में अमित शाह ने कहा था, ”75 साल से ऊपर के किसी को टिकट नहीं दिया गया. ये पार्टी का फ़ैसला है.”
एक दूसरे पुराने वीडियो में शाह कहते दिखते हैं- “75 साल से ऊपर के नेताओं को ज़िम्मेदारी नहीं देने का फ़ैसला हुआ है.”
हालांकि अतीत में कलराज मिश्र, नजमा हेपतुल्ला और अब जीतन राम मांझी 75 की उम्र पार करने के बाद भी मोदी कैबिनेट में जगह बनाने में सफल रहे. इनमें मांझी बीजेपी के नहीं हैं बल्कि उनकी पार्टी सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा है.
75 पार का नियम मोदी ख़ुद मानेंगे?
कभी मोदी के चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर ने एक इंटरव्यू में कहा- “ये नियम बनाया तो मोदी जी ने ही है, तो ये उन पर है कि वो इस नियम को मानेंगे या नहीं?”
संघ और बीजेपी की विचारधारा के समर्थक डॉ. सुर्वोकमल दत्ता मिडिया से कहते हैं, “75 साल उम्र होने के बाद ये प्रधानमंत्री जी के ऊपर है कि वो इस पर विचार करना चाहते हैं या नहीं. मान लीजिए कि अगर स्वेच्छा से वो सोचते हैं कि उनको अवकाश लेना चाहिए तो ये उनकी निजी सोच होगी. इसमें संगठन की तरफ से मेरा मानना है या विचारधारा की तरफ से किसी तरह का प्रेशर नहीं है.”
बीजेपी, संघ, अटल बिहारी वाजपेयी और योगी आदित्यनाथ पर वरिष्ठ पत्रकार विजय त्रिवेदी किताबें लिख चुके हैं
वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन चतुर्वेदी कहते हैं, “नरेंद्र मोदी अभी काफी एक्टिव हैं. लगता है कि 2029 तक कंट्रोल नरेंद्र मोदी के हाथ में ही रहेगा.”
मगर राजनीति अनिश्चितता से भरी होती है. ख़ास तौर पर बीजेपी और संघ के मामले में किसी भी चीज़ की तैयारी बहुत पहले से चालू हो चुकी होती है.
‘संघम् शरणम् गच्छामि’ किताब के लेखक विजय त्रिवेदी कहते हैं, “नंबर वन के लिए लड़ाई तो जारी नहीं है. मुझे लगता है कि खोज शुरू हो गई होगी. संघ को जो हम समझते हैं वे दूरगामी निर्णयों, नीतियों पर भरोसा करते हैं. एक लंबे समय तक के लिए क्या कार्य-योजना होगी, इस पर वो लगे रहते हैं. ज़ाहिर है, बीजेपी में पीएम मोदी के अलावा दूसरे नेतृत्व की तलाश भी संघ कर रहा होगा.”
तो क्या संघ ने वाक़ई तैयारी शुरू कर दी है और यहां ये समझना ज़रूरी है कि बीते 10 सालों में नरेंद्र मोदी और संघ का रिश्ता कैसा रहा है.
संघ और मोदी: दूरियों की बात कहां से आईं
मई 2024 में बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को दिए इंटरव्यू में कहा, “शुरू में हम अक्षम होंगे, थोड़ा कम होंगे. आरएसएस की ज़रूरत पड़ती थी. आज हम बढ़ गए हैं. सक्षम हैं तो बीजेपी अपने-आपको चलाती है.”
जानकारों का कहना है कि नड्डा के इस बयान से संघ में काफ़ी नाराज़गी देखने को मिली.
एक अख़बार के संपादक ने कहा, “नड्डा के बयान से इस बार संघ में नाराज़गी थी. चुनाव के दौरान होने वाले प्रशिक्षण शिविर को भी इस बार नहीं टाला गया. किसी भी संघ वाले से बात करेंगे तो वो बताएंगे कि वो ना के बराबर निकले. हाँ, उन्होंने मध्य प्रदेश में जमकर मेहनत की क्योंकि शिवराज सिंह चौहान ने हमेशा आदर-सत्कार किया. वहां नतीजे भी दिखे.”
बीजेपी-संघ को कवर करने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार ने मिडिया से बातचीत में दावा किया, “चार जून की शाम बीजेपी संगठन के एक शीर्ष नेता और एक वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री दिल्ली में संघ के दफ़्तर मिलने गए. संघ की ओर से कहा गया कि आप संसदीय दल की बैठक बुलाकर अपना नेता चुन लीजिए. ये बात संघ ने बहुत हल्के से कही. इस बात को जब आगे बताया गया तो इशारे को समझ लिया गया.”
इसके बाद बीजेपी संसदीय दल की बैठक नहीं बुलाई गई बल्कि एनडीए की बैठक हुई.
बीजेपी की वेबसाइट पर भी 2024 चुनावी नतीजे आने के बाद बीजेपी संसदीय दल नहीं, एनडीए की बैठक से जुड़ी प्रेस रिलीज़ जारी की गई. वहीं, 2019 में 303 सीटें जीतने के बाद चुनावी नतीजों के अगले दिन 24 मई को बीजेपी संसदीय दल की बैठक हुई थी न कि एनडीए की बैठक.
सूत्रों के किए दावे के मुताबिक़, ”संघ के लोगों का अनौपचारिक रूप से ये कहना रहता है कि 240 सीटों में से 140 सांसद हमारे हैं. अगर बीजेपी की बैठक होती तो उसमें ये शायद ना चुने जाते इसलिए इन्होंने वो बैठक ही नहीं बुलाई. अगले दिन चंद्रबाबू नायडू और नीतीश को बुलाकर पत्र वगैरह लेकर एनडीए का मामला शुरू कर दिया. ये चीज़ भी संघ को अच्छी नहीं लगी कि आपने अपने आपको थोप दिया.”
योगी बनाम शाह?
हमने संघ, बीजेपी, सूत्रों और कई वरिष्ठ पत्रकारों से बात की. ज़्यादातर का कहना है कि अभी जो लड़ाई है, वो योगी और शाह के बीच ही दिखती है.
ऐसे में संघ किस ओर नज़र आता है?
एक दैनिक अखबार के संपादक ने कहा- ”संघ योगी के साथ है. नंबर-2 चाहते हैं कि योगी हट जाए तो लड़ाई ही ख़त्म हो जाएगी. पर संघ का हाथ योगी के साथ इतना मज़बूती के साथ है कि उनका हटना कुछ मुश्किल है.”
बीजेपी से जुड़े सूत्र बताते हैं, ”मोदी चाहते हैं कि अमित शाह ही मेरी जगह लें. इधर से शाह योगी के काम में दखल देते हैं. उधर योगी इनके अपनों को झटका देते हैं.”
वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों को लेकर खींचतान. यूपी में स्मार्ट मीटर की रेस में अदानी का होना और उसका टेंडर का रद्द होना.
ये कुछ ऐसे वाकये हैं, जिनके ज़रिए योगी बनाम मोदी सरकार की दूरियों की ओर इशारा किया जाता है.
वरिष्ठ पत्रकार राकेश मोहन चतुर्वेदी कहते हैं, ”अभी जो नाम हैं, उनमें योगी और शाह का नाम आता है. योगी हिंदुत्व का चेहरा हैं. वहीं मोदी की योजनाओं को लागू करने में शाह की अहम भूमिका रही है. ”
नितिन गडकरी को 2009 में बीजेपी अध्यक्ष बनाना हो, योगी को यूपी में सीएम बनाना हो या जून 2005 में मोहम्मद अली जिन्ना को सेक्यूलर बताने के बाद आडवाणी से बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी छीनना.
बीजेपी से जुड़े बड़े फैसलों के पीछे संघ रहा है.
योगी और शाह का ज़िक्र करते हुए पत्रकार विजय त्रिवेदी कहते हैं, ”मुझे लगता है कि जब भी फ़ैसला होगा वो संघ की सहमति से दिशा-निर्देश और आपसी बातचीत से तय हो सकता है.”
संघ का झुकाव किस ओर
ऐसे में अब सवाल ये है कि अगर योगी बनाम शाह की अटकलों को सही माना जाए तो संघ का झुकाव किस ओर होगा?
संघ आधिकारिक या सार्वजनिक तौर पर इन मुद्दों पर टिप्पणी नहीं करता है.
संघ में अहम पद की ज़िम्मेदारी संभाल रहे एक शख़्स ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ”जब समय आएगा जिसके बारे में सहमति बनेगी, बीजेपी तय कर लेगी. इन सारे विषय में उस समय बीजेपी को कोई सहयोग चाहिए होगा तो संघ के अधिकारी उनसे संपर्क में रहते हैं. इस विषय पर वो बात रखेंगे. जो सुझाव देना होगा, वो सुझाव देंगे. अंतिम निर्णय बीजेपी को करना होगा.”
वो बोले, ”हमें नहीं लगता कि कोई परिवर्तन हो रहा है. बातचीत लोग करते रहेंगे, अपने अंदाज़े लगाते रहेंगे.”
इसी अंदाज़े के बारे में हमने संघ समर्थक डॉ. सुर्वोकमल दत्ता से पूछा.
डॉ. सुर्वोकमल दत्ता कहते हैं, ”मुख्य रूप से अगर देखा जाए तो मैं समझता हूं कि महंत योगी आदित्यनाथ जी हैं. उनके साथ-साथ हिमंत बिस्वा सरमा, शिवराज सिंह चौहान, पीयूष गोयल, अनुराग ठाकुर जैसे कई नेता हैं…’
सौ बीबीसी…