रोज़ा और चरित्र निर्माण

रोज़ा और चरित्र निर्माण

ऐ इमान वालो!फ़र्ज़ किये गये तुम पर रोज़े जैसे फ़र्ज़ किया गया था तुमसे अगलों पर ताकि तुम परहेज़गार हो जाओ (सूर: बकरा आयत 183)
रोज़े को अरबी में “सौम” कहते हैं।
हज़रत अबू हुरैरा रज़ी अल्लाहू अन्हू रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने कहा “अगर कोई व्यक्ति झूठ बोलना और झूठ पर अमल करना बंद नहीं करता है, तो अल्लाह को उसके खाना-पीना बंद करने की कोई ज़रूरत नहीं है।”(बुखारी शरीफ)
आज मुसलमान रमज़ानुल मुबारक के साथ सौतेला रवैया इख़्तियार कर रहे हैं। रोज़े का मक़सद खौफे खुदा और परहेज़ गारी है। अगर यह लक्ष्य प्राप्त न हो तो रोज़े जैसी अज़ीम इबादत बेकार हो जाती है। रोज़े की रूह को ना समझने की वजह से मुसलमान रोज़े की हालत में झूठ बोलना, धोखा देना, झूठी बातों को आम करना नहीं छोड़ते। रोज़ा सिर्फ भूखे प्यासे रहने का नाम नहीं है।
सुबह सादिक से लेकर गुरुबे आफताब तक खाने-पीने और जिंसी ख्वाहिशात से अपने आप को रोके रखना रोज़ा है।
हजरत अबू हुरैरा रज़ी अल्लाहू अन्हू से रिवायत है की के प्यारे नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया रोज़ा खास अल्लाह के लिए है और अल्लाह ही उसका बदल देगा।
बदन के हर हिस्से का रोज़ा होता है।
ज़बान का रोज़ा :-रोज़ा एक ढाल है, जब तुम में से कोई रोज़े से रहे तो गाली न बके, और ना ही दंगा फसाद करे अगर कोई रोज़ेदार को गाली दे या झगड़ा करें तो वह कह दे कि मैं रोज़े से हूं (बुखारी शरीफ)
यह ज़बान का रोज़ा है के, किसी को गाली ना दे,बेशर्मी और बेहयाई की बात ज़बान से ना निकाले बलके ज़बान को तिलावत और अल्लाह के ज़िक्र से तर रखें। अपशब्द कहना, गाने गाना, झूठी बातें आम करना, वादे को वफा ना करना, इल्ज़ाम तराशी करना, चुगलखोरी करना,हर लमहे और हर दिन माना है। लेकिन रोज़े की हालत में जबके नफिल का सवाब फ़र्ज़ के बराबर और फ़र्ज़ का सवाब सत्तर गुना बढ़ा दिया जाता है इसमें उनकी संगीनी और बढ़ जाती है। और ऐसे काम हमारे रोज़ों को बेरूह कर देते हैं।
कान का रोजा:-कान का रोज़ा यह है कि इससे अच्छी बात सुनी जाए। गलत बातें सुन कर कान के रोज़े को खराब ना करें। रोज़े का रिश्ता पूरे जिस्म से होता है। अगर इन कानों से हमने सही बातें सुनी तो यह कान हमारे लिए क़यामत के दिन गवाही देंगे। वरना हमारे मुंह पर मोहर लगा दी जाएगी और हमारे कान यह बताएंगे के कितने लोगों की राज़ की बातें हम छुप-छुप कर सुनते रहे।
रोज़ा और रमजान ने सहाबा कराम की तरबियत की थी। वह रोज़े को रस्मि अमल नहीं समझते थे बल्कि तक़वा की आबयारि ज़रिया समझते थे। बदनसीब है वह मुसलमान जो रोज़ा रखकर की भी अपने अख़लाक़ की तामीर ना कर सके‌। हम सर के बालों से लेकर पैर के नाख़ूनों तक सरापा रोज़ेदार बन जाएं।
हाथ का रोज़ा:-हाथ का रोज़ा यह है कि इससे ग़लत चीज ना पकड़ी जाए। चोरी ना करें, किसी को ना मारे।
पैर का रोज़ा:-पैर का रोज़ा यह है कि गलत रास्ते पर ना चला जाए। शैतान के रास्ते पर चलने के बजाय रहमान के रास्ते पर चले।
आंखों का रोज़ा:-आंखों का रोज़ा यह है की गलत चीज़ ना देखी जाए। आम हालात में मोमिन मर्दों और औरतों को यह हुक्म दिया गया है कि वह अपनी नज़रों को नीची रखें, रमजान में रोज़े की हालत में यह हुक्म और सख्त हो जाता है। हमारे आंखों की ज़रा सी लग़ज़िश हमारे रोज़े को फाक़े में तब्दील कर देगी। बड़ा अजीब मामला है हम हलाल चीजों से तो अपने आप को रोक लेते हैं लेकिन हराम की तरफ नजर उठाते हुए हया नहीं आती। यही वजह है कि हम सालों से रोज़े रख रहे हैं लेकिन हमारी जिंदगी में कोई तब्दीली नहीं आ रही है। अगर हमने बदन का रोज़ा नहीं रखा तो एक महीना क्या पूरी जिंदगी भी रोज़ा रख ले तो हमारे अंदर अल्लाह का डर नहीं आएगा।

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