उद्योगपति पराग देसाई के बाग – बकरी चाय का विज्ञापन नही है। प्रोफेसर अशोक चक्रधर के बाग – बकरी के सद्भावना से लबरेज कविता है।
जंगल के चुनाव का संभावित विजेता वनराजा शेर शान्तिपूर्ण चुनाव के लिए और जंगल के हित में शिकार , खूनखराबा त्याग कर इंसानी फितरत अख्तियार किया !
एक नन्हा मेमना उसकी मां बकरी
जा रहे थे जंगल में राह थी संकरी
अचानक सामने आ गया शेर
लेकिन अब तो हो चुकी थी बहुत देर
भागने का नही था कोई भी रास्ता
बकरी और मेमन की हालत खस्ता
उधर शेर की कदम धरती नांपे
इधर ये दोनों थर – थर कांपे
अब तो शेर आ गया था एकदम सामने
बकरी लगी जैसे – जैसे बच्चे को थामने
तो छिटक बोला बकरी का बच्चा
शेर अंकल,
क्या तुम हमें खा जाओगे एकदम कच्चा
शेर मुस्कुराया
उसने अपना भारी पंजा मेमने के सिर फिराया
हे बकरी कुलगर्वा आयुष्मान भव:
चिरायु भव: दिर्घायु भव: कर कलरव
होत सब साबूत रहे सब अवयव
आशीष देता यह पशुपंगव शेर
अब नही होगा कोई अंधेर
उछलों कूदो नांचो और जीओ हंसते – हंसते
अच्छा बकरी मैईया नमस्ते
इतना कहकर शेर कर गया प्रस्थान
बकरी हैरान बोली बेटा ताज्जुब है
भला यह शेर किसी पे रहम खाने वाला है
लगता है जंगल में चुनाव आने वाला है
शहर के चुनाव के लिए हमारे लोकतंत्र के संभावित राजा आमशहरियों के साथ भेदभाव त्यागकर भाईचारा, सद्भावना पूर्ण आचरण प्रदर्शित करेंगे ?
जानवर तो इंसान से सीखता है। क्या इंसान जानवर से …… ?
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