जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेश नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करें।
“…जब तक साहित्य का काम केवल मनबहलाव का सामान जुटाना, केवल लोरियाँ गाकर सुलाना, केवल आँसू बहाकर जी हल्का करना था, तब तक इसके लिए कर्म की आवश्यकता न थी। वह एक दीवाना था, जिसका ग़म दूसरे खाते थे। मगर हम साहित्य को केवल मनबहलाव की वस्तु नहीं समझते, हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिन्तन हो, स्वाधीनता का भाव हो, सौन्दर्य का सार हो, सृजन की आत्मा हो, जीवन की सच्चाइयों का प्रकाश हो – जो हममें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज़्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है। ”
साम्यवाद का विरोध वहीं
करता है, जो दूसरे से ज्यादा
सुख भोगना चाहता है, जो
दूसरे को अपने अधीन रखना चाहता है।
जो सबको बराबर समझता है,
जो समदर्शी है उसे साम्यवाद से क्योंकर विरोध होने लगा ?
विश्वविख्यात पार्श्वगायक मोहम्मद रफ़ी साहब की बरसी 31 जुलाई 1980 की याद में !
झमकत नदियां बहिनी लागै परबत मोर मितान …. ये छत्तीसगढ़ी गीत जेला सबले पहली सिनेमा कहि देबे सन्देश ले गेहे। ये सिनेमा ला छत्तीसगढ़ी परिवेश मे फिलमाए गेहे। सामाजिक भेदभाव ये सिनेमा के विषयवस्तु हे , जेहा आज भी हमर समाज मा व्याप्त हे। ये सिनेमा ला मनु नायक हा 1965 मा बनाए रिहिस, ये फिलिम के लेखक, निरमाता – निरदेशक मनु नायक हे।अऊ परसतुत गीत के रच्चईया कौशिक हरे , ये गीत ला लयबद्ध करेहे मलय चक्रवर्ती हा अऊ येला छत्तीसगढ़ी स्वर मे पिरोये हे मोहम्मद रफ़ी हा …. !
झमकत नदियां बहिनी लागै
परबत मोर मितान … हावे रे भाई
मे बेटा हों ये धरती के
धरती मोर परान … हावे रे भाई
झमकत नदियां …..
हरियर लुगरा पहिरे भुंईया
चंदा दिये कपार मा
तरिया के दरपन मा
मुख ला देखत बैईठे पार मा
सिन्दूर भुके साज इहाँ के
सोनहा इहाँ बिहान … हावे रे भाई
झमकत नदियां …..
कान के खिनवा झम-झम झमके
पैरी झनके पाँव मा
घर-घर चुरी खन-खन खनके
सरग उतर गे गाँव
हरियर- हरियर राहेर डोले
पींवरा-पींवरा धान …. हावे रे भाई
झमकत नदियां …..