“हमारी समस्या है नागरिक आज्ञाकारिता !….”

“हमारी समस्या है नागरिक आज्ञाकारिता !….”

विख्यात अमेरिकी इतिहासकार, नाटककार, दार्शनिक और समाजवादी विचारक हॉवर्ड जिन (1922-2010), जिनकी लिखी किताब ‘ए पीपुल्स हिस्ट्री आफ यूनाईटेड स्टेट्स’ की लाखों प्रतियां बिक चुकी हैं, के यह लफ्ज़ आज भी दुनिया के उन तमाम मुल्कों  में दोहराए जाते हैं, जहां की जनता जब-जब हुक्मरानों के हर फरमान को सिर आंखों पर लेती है।

वैसे बहुत कम लोग इस वक्तव्य के इतिहास से वाकिफ हैं, जिसे उन्होंने अमेरिका के युद्ध विरोधी आंदोलन के दौरान बाल्टिमोर विश्वविद्यालय के परिसर में रैडिकल छात्रों और परिवर्तनकामी अध्यापकों के विशाल जन समूह के सामने दिया था। गौरतलब है कि यही वह दौर था, जब अमेरिकी सरकार की वियतनाम युद्ध में संलिप्तता को लेकर — जिसमें तमाम अमेरिकी सैनिकों की महज लाशें ही अमेरिका लौट पायी थीं — जनाक्रोश बढ़ता गया था और अमेरिकी सरकार पर इस बात का जोर बढ़ने लगा था कि उसे अपनी सेनाओं को वहां से वापस बुलाना चाहिए।

याद किया जा सकता है कि इस ऐतिहासिक साबित हो चुके व्याख्यान के एक दिन पहले क्या हुआ था! एक युद्ध विरोधी प्रदर्शन में शामिल होने के चलते उन्हें संघीय पुलिस ने गिरफ्तार किया था और हॉवर्ड जिन को कहा गया था कि वह अगले दिन अदालत में हाजिर हों।

जिन के सामने सवाल यह था कि क्या वह दूसरे ही दिन अदालत के सामने हाजिर हों, जहां उन्हें चेतावनी मिलेगी और फिर घर जाने के लिए कहा जाएगा ; या फिर वह बाल्टिमोर जाने के अपने निर्णय पर कायम रहें, जहां के रैडिकल छात्रों ने उनके लिए जो निमंत्रण भेजा था और पहले वे इस निमंत्रण का सम्मान करें और उसके अगले दिन अदालत के सामने हाजिर हों। यह जाहिर था कि इस हुक्मऊदूली के लिए उन्हें कम-से-कम कुछ दिन/ महीने सलाखों के पीछे जाना होगा।

जिन ने बाल्टिमोर जाना ही तय किया, जहां उन्होंने अपना भाषण दिया — जिसकी छात्रों एवं अध्यापकों में जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई और वह लौट आए और अगले ही दिन अदालत के सामने हाजिर हुए और जैसा कि स्पष्ट था कि उन्हें कुछ सप्ताह के लिए जेल भेज दिया गया।

हाल के समय में दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र भारत में में जब-जब ‘बुलडोजर न्याय’ की परिघटना सामने आयी है, तब-तब जिन के इस उदबोधन की प्रासंगिकता बढ़ती दिखती है।

न्याय के ‘वाहक’ के तौर पर बुलडोजर के इस रूपांतरण की परिघटना का अब सामान्यीकरण हो चला है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुआ, जब एक अग्रणी समाचार पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ ने भारत में फैलते ‘बुलडोजर राज’ की तेजी से बढ़ती व्याप्ति के बारे में तथ्य प्रस्तुत किए थे। इस पत्रिका के मुताबिक महज दो साल के अंदर देश भर में डेढ लाख से अधिक मकान गिरा दिए गए हैं और साढ़े सात लाख लोगों को बेघर कर दिया गया है। इस लेख में इस बात की भी चर्चा थी कि किस तरह मुसलमान और अन्य धार्मिक एवं सामाजिक तौर पर हाशियाकृत समूहों पर इसकी सबसे अधिक मार पड़ती है, जब मामूली घटनाओं का बहाना बना कर तुरंत बुलडोजर उनके मकानों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों को ध्वस्त करने के लिए भेजे जाते हैं।

हम यह भी जानते हैं, चुनाव नतीजों के महज पंद्रह दिनों के अंदर, लखनऊ के अकबरनगर में इसी किस्म का व्यापक ध्वस्तीकरण अभियान चलाया गया था, जिसके तहत राज्य सरकार ने 1,800 से अधिक भवनों को — जिनमें 1,169 मकान थे और 101 व्यावसायिक प्रतिष्ठान थे, ध्वस्त किया था — जिन जगहों पर लोग कई दशकों से रह रहे थे। गौरतलब है कि यह तुरत-फुरत की कार्रवाई तब की गयी है, जब भारत का संविधान धारा-21 के तहत लोगों के जीवन और व्यक्तिगत आज़ादी की गारंटी लेता है और इस बात पर जोर देता है कि किसी भी व्यक्ति को प्रदत्त न्याय प्रणाली के बिना इन बुनियादी अधिकारों से वंचित नहीं किया जा सकता है।

‘बुलडोजर’ के माध्यम से जारी इस ध्वस्तीकरण अभियान में फिलवक्त मध्यप्रदेश के छतरपुर में लगभग 5 करोड़ रूपयों की लागत से बनाया गया कांग्रेस नेता हाजी शहजाद अली के मकान का प्रसंग सूर्खियों में है। यह विध्वंस आम जनता के सामने ही किया गया। लोग हमेशा की तरह खामोश रहे, जब यह मकान दिन के वक्त ध्वस्त किया गया। इतना ही नहीं, मकान के सामने रखी गयी तीन कारों को भी नष्ट किया गया। यह अभी भी अस्पष्ट है कि किस के आदेश पर यह विशाल मकान ध्वस्त किया गया? आखिर किस कानून के तहत पुलिस और प्रशासन को यह अधिकार मिल जाता है कि वह भारत के एक नागरिक के बुनियादी अधिकारों पर इस तरह हमला करे। क्या यह अपने आप में अपराध है कि लोगों की मांगों को लेकर, उनके साथ शिकायत करने, पुलिस प्रशासन के अधिकारियों से मिला जाए? क्या यह अपराध है कि लोग जब उग्र हो जाएं, तो उन्हें खामोश रहने के लिए कहा जाए, शांति बरतने के लिए कहा जाए?

क्या यह कहना मुनासिब होगा कि इस कार्रवाई को लेकर प्रशासन की अलग-अलग बातें इस मसले पर उसके संभ्रम को दर्शाती है कि इस कार्रवाई में उसे रक्षात्मक पैंतरा अख्तियार करना पड़ रहा है। जैसा कि विश्लेषकों ने कहा कि पहले इस ध्वस्तीकरण को इस आधार पर औचित्य प्रदान किया जा रहा था कि वह सरकारी जमीन पर हुआ है, फिर कहा जाने लगा कि वह किसी जलाशय के पास है और अब यह कहा जा रहा है कि यूं तो यह जमीन शहजाद अली की है, लेकिन मकान का नक्शा संबंधित विभाग से पास नहीं किया गया है। (द वायर)

आखिर कब से ऐसा कोई निर्माण – जिसका नक्शा संबंधित अधिकारियों ने पास नहीं किया हो – उसे इस तरह आनन-फानन तबाह किया जाता है, जबकि इस मामले में लंबी प्रक्रिया चलती है, अदालत या संबंधित विभाग कुछ जुर्माना करते है या अधिक से अधिक विवादित मकान का एक हिस्सा गिरा देते हैं। दरअसल जिस निर्द्वन्द्व तरीके से इस महलनुमा मकान को ध्वस्त किया गया और अब एक के बाद एक नए स्पष्टीकरण आ रहे हैं, उसे देखते हुए राज्य सरकार के अधिकारियों के लिए अब इन आरोपों से बचना मुश्किल जान पड़ रहा है कि उन्होंने पक्षपातपूर्ण व्यवहार किया है और उन्होंने संविधान के रक्षक के तौर पर नहीं, बल्कि ‘सत्ताधारी भाजपा के सेवकों की तरह’ व्यवहार किया है, (क्लेराइन इंडिया)। इन विवादास्पद ध्वस्तीकरण के महज दो सप्ताह पहले कांग्रेस पार्टी ने अपने पूर्व मुख्यमंत्राी दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में एक विशाल रैली की थी, जिसमें भिंड के जिलाधीश के खिलाफ एफआईआर (प्रथम सूचना रिपोर्ट) दायर करने की मांग की गई थी, जिन्होंने कथित तौर पर धार्मिक आधार पर मकानों को ध्वस्त किया था, (वही)। इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि इन ध्वस्तीकरणों को भी भाजपा शासित राज्यों में होने वाली घटनाओं में अब अपवाद नहीं कहा जा सकता।

उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनावों के नतीजों के ऐलान के महज एक सप्ताह के अंदर, आदिवासी बहुल मंडला जिले में सरकारी जमीन पर बने अल्पसंख्यक समुदाय के 11 मकानों को इन आरोपों के तहत ध्वस्त किया गया कि वहां से ‘बीफ का अवैध व्यापार’ चलता है, (द हिंदू)। जैसा कि पीड़ितों ने बताया कि इन ध्वस्तीकरणों के पहले किसी प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया और महज यह दावा गया किया कि वे मकान ‘सरकारी जमीन’ पर बने हैं और तुरंत बुलडोजर उन इलाकों में भेजे गए और उनके मकानों को ध्वस्त किया गया, (टू सर्कल्स)। ऐसा दिख रहा था कि ‘पुलिस/प्रशासन ने अब लिंचिग का काम’ अपने हाथ में लिया है (इंडियन एक्सप्रेस), जहां अब राज्य द्वारा निशानदेही पर किए जाने वाले अत्याचार/ स्टेट विजिलेंटिजम अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ हिंसा को वैधता प्रदान कर रहे हैं। एक तरह से वर्ष 2015 में जिस कांड का आगाज़ हुआ था — जिसके तहत राजधानी दिल्ली के दादरी नामक जगह पर गांववासियों का एक झुंड अचानक अखलाख के घर में पहुंचा था — इस संदेह के तहत कि वह अपने फ्रीज में बीफ रखे हुए है — और उन्होंने उसकी हत्या कर दी थी।

स्थिति की गंभीरता का अंदाज़ा इसी बात से लगा सकते हैं कि ‘अवैध ध्वस्तीकरणों को’ लेकर ‘कम से कम 1,000 याचिकाएं मध्यप्रदेश की विभिन्न अदालतों में लंबित है, जिसके तहत ‘बुलडोजर (अ)न्याय’ की इस परिघटना पर सवाल उठाया गया है। यहां तक कि मुल्क की आला अदालत को ऐसे तुरंता अन्याय के तरीकों पर अपनी खरी-खरी राय प्रगट करनी पड़ी है, (नेशनल हेराल्ड)। सूचना यह भी मिली है कि सोमवार 8 सितम्बर को न्यायमूर्ति आर आर गवई और न्यायमूर्ति के वी विश्वनाथन की पीठ इन मामलों की सुनवाई करने वाली है, (द टेलीग्राफ, 31 अगस्त, 2024)।

ध्यान रहे कि यह मसला मध्य प्रदेश या किसी एक राज्य तक सीमित नहीं है, यह सिलसिला भाजपा शासित राज्यों में आम है। मिसाल के तौर पर, राजस्थान के उदयपुर में, एक मुस्लिम छात्र द्वारा अपने हिन्दू सहपाठी की हत्या की घटना सामने आयी है। इस घटना के बाद जो पुलिस/प्रशासन द्वारा किया गया, वह किसी को भी अविश्वसनीय लग सकता है। एक तरह जहां संकीर्णमना लोग और संगठन मामले को  सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश में सक्रिय थे और अदालत इस मामले पर गौर ही कर रही थी, उसी अंतराल में पुलिस प्रशासन बुलडोजर दस्ते के साथ उस मोहल्ले में पहुंचा, जहां अभियुक्त बच्चा अपने माता-पिता के साथ किसी मकान में किराए पर रहता था। पुलिस ने आनन-फानन में उस मकान को ध्वस्त किया, जबकि मकान के मुस्लिम मालिक का उस प्रसंग से कोई लेना-देना तक नहीं था, (द हिंदू)। तयशुदा बात है कि किसी खास तबके/समुदाय के खिलाफ बदले की भावना से ऐसी कार्रवाई या हिंसा को महज कानूनी शब्दावली में या उसकी कथित कमियों की बात करके समझा नहीं जा सकता।

शायद ऐसी घटनाएं ऐसे वातावरण में अधिक दिखती हैं, जहां भेदभावजनक कानून हैं — जो राज्य और उसकी मशीनरी को किसी खास नस्लीय, सांस्कृतिक  समूह या किसी खास धार्मिक/सामाजिक समुदाय के सदस्यों को निशाना बनाने को आसान बनाती है या एक पूर्वाग्रह से ग्रसित आधिकारिक आचरण होता है, जिसकी जड़ें समाज के ऐतिहासिक दरारों (फाल्ट लाइन्स) में दिखती हैं।

इतिहास हमें हिटलर के जर्मनी में बने न्यूरेम्बर्ग कानूनों (1935) के बारे में बताता है, जिसने नात्सी हुकूमत के लिए यह बेहद आसान बनाया कि वह यहूदियों के साथ भेदभाव को नीतिगत तौर पर अंजाम दे और उसने जर्मनी में सामी विरोध का भी संस्थाकरण किया, जिसकी परिणति यहूदियों के नस्लीय सफाये में हुई। ऐसी परिस्थिति, एक तरह से समाज के अंदर के अल्पसंख्यक समुदाय को सभी अधिकारों से वंचित करती है और उन्हें बहुसंख्यक समुदाय की दया पर छोड़ देती है।

हम ऐसी स्थिति से भी रूबरू हो सकते हैं, जहां औपचारिक तौर पर ऐसे भेदभावजनक कानून अस्तित्व में नहीं है, मगर विभिन्न ऐतिहासिक और अन्य कारणों से ऐसे भेदभावजनक या पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार अधिकाधिक सामान्य होते जाते हैं। ऐसी परिस्थितियां भी हो सकती हैं कि हर कोई कानून के सामने बराबर है, अर्थात वैधानिक तौर पर ऐसे कानून अस्तित्व में न हो, मगर हक़ीकत में खास समुदायों के खिलाफ भेदभाव सरेआम हो, (द वायर)।

अब इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नौकरशाही में तथा प्रशासन में विभिन्न स्तरों पर ऐसे पूर्वाग्रह इतने गहरे तक धंसे हैं, जिसे प्रोफेसर अपूर्वानंद “भारतीय राज्य मशीनरी का हिन्दुत्वकरण” कहते हैं, “जो एक तरह से “पिछले दस साल की सबसे भयानक घटना है” और वह इस बात को भी रेखांकित करते हैं कि उन्हें इस बात को कभी नहीं भूलना चाहिए कि अपने जीवन के किसी न किसी मुक़ाम पर, समूचा समाज न्याय की दिशा में आगे बढ़ेगा।
 
“पीड़ित उन सभी अधिकारियों के नाम जानते है, जो बुलडोजर प्रयोग के आदेश जारी करते हैं या जो फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देते हैं। एक दिन ऐसा आएगा और वह अब अधिक दूर नहीं है, जब उन्हें अपनी करतूतों के लिए अदालत का सामना करना पडेगा, जब उनकी आज की कार्रवाईयों को न्याय के सिद्धांतों पर तौला जाएगा और हरेक को उन तमाम अपराधों के लिए जवाब देना पड़ेगा, जिन्हें वह आज व्यक्तिगत तौर पर अंजाम दे रहे हैं। हर व्यक्ति उसकी अपनी हरकतों के लिए निजी तौर पर जिम्मेदार ठहराया जाएगा। वे सभी प्रशासकीय और पुलिस अधिकारी, जिन्हें अपने समय के सबसे मेधावी छात्रों में शुमार किया जाता है, क्योंकि वह यूपीएससी की परीक्षा देकर वहां पहुंचे होते हैं, निश्चित ही न्यूरेम्बर्ग मुकदमों को भूले नहीं होंगे। उन मुकदमों में सभी अभियुक्त व्यक्ति के तौर पर कटघरे में थे। उम्मीद कर सकते हैं कि यह सभी अधिकारी अपनी व्यक्तिगतता को याद रखेंगे और अपने दिमागों का इस्तेमाल भी शुरू करेंगे। उन्हें चाहिए कि वे हिन्दुत्व की इस चक्की के पुर्जे न बनें — जो मुसलमानों को कुचल रही है या उन हाथों में शामिल न हों, जो इस चक्की को चला रहे हैं।” (द वायर)
 
जब प्रशासन पूर्वाग्रहपूर्ण व्यवहार को अंजाम देता है या जब न्यायपालिका ऐसे मामलों को तेजी से नहीं आगे बढ़ाती और समूचे वातावरण के तहत नागरिक समाज भी ‘कानून के राज के इस खुल्लमखुला उल्लंघन’ को लेकर समझौताजनक रूख अख्तियार करता है, तब अमन एवं इंसाफ के प्रति सरोकार रखने वाले नागरिकों और आदर्शवादी युवकों के सामने क्या रास्ता बचता हैे! इसीलिए शायद वक्त़ की मांग है कि अब अधिक सृजनात्मक और प्रेरणादायी समाधान की तरफ बढ़ने की कोशिश करें।

आज की तारीख में जब गाज़ा में और अन्य फिलिस्तीनीबहुल इलाकों में इसरायली सेना जिस ‘नस्लीय सफाये’ को अंजाम दे रही है, तब यह जानना काफी प्रेरणादायी हो सकता है कि इन्हीं कठिन परिस्थितियों में इसरायली युवाओं का एक छोटा-सा हिस्सा पश्चिमी तट में सामने आ रही नस्लीय सफाये की घटनाओं को रोकने के लिए अपने आप को झोंक रहा है। युद्ध की आड़ में इसरायली सेना और पुलिस के समर्थन से फिलिस्तीनीबहुल इलाकों में वहां के गडेरिया समुदायों को निशाना बनाते हुए वहां आबाद यहूदियों द्वारा हिंसा की घटनाएं बढ़ रही है और वहीं वे इसरायली कार्यकर्ता दिखते हैं, जो उन्हें बचाने के लिए अपने आप को आगे कर रहे हैं, (हारेट्ज.कॉम)।
 
वैसे वे प्रख्यात युवा क्रांतिकारी रैशेल कोरी की शहादत से भी सीख सकते हैं, जिसने बमुश्किल 23 साल की उम्र में उस वक्त़ अपनी शहादत दी, जब इसरायली टैंंक दक्षिण गाज़ा में एक फिलिस्तीनी मकान को तबाह करने के लिए आगे बढ़ रहे थे, (अमेरिकन्स हू टेल द ट्रूथ)। दरअसल उपरोक्त मकान का ध्वस्तीकरण कोई अपवाद की घटना नहीं थी, उसके पहले इसरायली बुलडोजरों ने गाज़ा पट्टी के उस इलाके में एक हजार से अधिक मकानों को तबाह किया था और हजारों लोगों को बेघर कर दिया था।

अमेरिका में पढ़ाई कर रही रैशेल, फिलिस्तीनी और अंतर्राष्ट्रीय शांति कार्यकर्ताओं के समूह की सदस्य थी, जिनकी कोशिश थी कि वे फिलिस्तीनी संपत्ति को तबाह करने के इसरायली सरकार के अभियान को रोकें। उस दिन वह राफाह शरणार्थी शिविर में इस कोशिश में जमा थे कि वे खुद मानवीय ढाल अर्थात हयूमन शील्ड बनेंगे और विध्वंसीकरण को रोकेंगे, जब इसरायली दस्ते दो भाइयों – खालिद और समीर नसरल्लाह – के मकानों को ध्वस्त करने के लिए पहुंचने वाले थे।

यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि किस तरह जब बुलडोजर आगे बढ़ रहा था, तब रैशेल उपरोक्त मकान और बुलडोजर के बीच खड़ी थी और बुलडोजर को रूकने का इशारा कर रही थी, लेकिन बुलडोजर आगे बढ़ता ही गया था और मकानों को ध्वस्त करने के क्रम में सबसे पहले उसने रैशेल को ही कुचल डाला था। रैशेल की इस अनोखी शहादत की दुनिया भर में चर्चा हुई। इस बात को भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि रैशेल की शहादत के बाद दो अन्य शांति कार्यकर्ताओं ने भी इसी तरह फिलिस्तीनी मकानों को बचाने के प्रयास में आत्माहुति दी। बीस साल से अधिक वक्त़ गुजर चुका है, जब रैशेल और अन्य शांति कार्यकर्ता शहीद हुए थे।

आज हमारे मुल्क में बुलडोजर (अ)न्याय का सामान्यीकरण हो चला है और संवैधानिक संस्थाएं भी इस मामले में औपचारिक कार्रवाई के आगे कदम नहीं उठाती दिख रही हैं। ऐसे समय में जनमानस को जगाने के लिए, उन्हें प्रेरित करने के लिए, वे सभी जो न्याय, अमन और प्रगति के हक़ में हैं, उन्हें नयी जमीन तोड़ने की जरूरत है। उन्हें इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि आज की कठिन परिस्थितियों में भी इसरायली समाज में उठ रही इन वैकल्पिक आवाज़ों को कैसे समझा जाए, कैसे इस बात का आकलन किया जाए कि रैशल कोरी जैसी अमेरिकी युवती सुदूर फिलिस्तीन में वहां की उत्पीड़ित अवाम के लिए कुर्बानी देने का माद्दा कैसे हासिल करती है।

ऐसे समय में उन्हें जनमानस को यह भी बताने की जरूरत है, जिसकी तरफ हावर्ड जिन्न ने अपनी तकरीर में आवाज़ बुलंद की थी और समझाया था कि : ‘हमारी समस्या नागरिक आज्ञाकारिता है।’ हमारी समस्या यही है कि दुनिया भर के तमाम लोगों ने अपनी सरकारों के नेताओं के फरमानों को चुपचाप सुना है और वह युद्ध में जुट गए हैं और लाखों लोग इसी आज्ञाकारिता के कारण मर भी गए हैं। हमारी समस्या है ‘आल क्वाइट आन द वेस्टर्न फ्रेट’ का वह दृश्य, जब स्कूली छात्र युद्ध में शामिल होने के लिए कतारबंद हो रहे हैं। हमारी समस्या है कि भुखमरी और गरीबी तथा जाहिलपन के आलम में, युद्ध और क्रूरता के बीच दुनिया भर में लोग आज्ञाकारी हैं। हमारी समस्या है कि जबकि जेलें मामूली चोरों से भरी पड़ी हैं, बड़े-बड़े चोर-डकैत सरकारें चला रहे हैं। हमारी यही समस्या है।

“हम नात्सी जर्मनी की इस समस्या को समझते हैं। हम जानते हैं कि वहां भी समस्या आज्ञाकारिता की थी, वहां भी लोग हिटलर के प्रति आज्ञाकारी थे, वह सरासर गलत था। उन्हें चाहिए था कि वह चुनौती देते और प्रतिरोध करते और अगर हम उन दिनों वहां होते तो तय बात है कि हम अपने प्रतिरोध से उन्हें दिखा भी देते”, (हावर्ड जिन)।

हावर्ड जिन जिस समस्या को रेखांकित कर रहे हैं, हमारी भी समस्या वही है। और वह है नागरिक आज्ञाकारिता की।

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