नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया-
“जो आदमी अल्लाह और कियामत पर ईमान रखता है उस पर जुमे के दिन जुमा फ़र्ज़ है मगर रोगी, मुसाफ़िर और औरत और नाबालिग लड़के व गुलाम पर फर्ज़ नहीं।(दारकुतनी मिश्कात 114)
जुमे की नमाज़ शहर व गांव वालों पर फर्ज़ है जो लोग गांव वालों पर जुमा फ़र्ज़ नहीं समझते वे अल्लाह के फ़र्ज़ से लोगों को रोक रहे हैं इसका खमियाज़ा उन्हें आखिरत में भुगतना होगा इमाम के अलावा यदि दो आदमी भी कहीं हों तो उनको जुमा कायम करना चाहिए। (बुखारी, तिर्मिज़ी 101)
जुमे के दिन नमाज़ से पहले इमाम मिम्बर पर खड़े होकर दो खुत्बे पढ़े इसके बाद दो रकअत ऊंची क़िरअत से नमाज़ अदा करे। फर्जों के बाद वहां से थोड़ा हट कर दो रकआत या चार रकआत सुन्नत अदा करे। कुछ सहाबा से फ़र्ज़ो के बाद छः रकआतें भी साबित हैं (सहीहीन मिश्कात 614)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया जब जुमे का दिन आता है तो फरिश्ते मस्जिद के दरवाज़े पर आ खड़े होते हैं और आने वालों को लिखने लगते हैं जो आदमी सबसे पहले आता है उसे इतना सवाब मिलता है मानो उसने एक ऊंट मक्का मैं कुरबान किया और जो उसके बाद आते हैं उन्हें गाय की कुरबानी का सवाब मिलता है और उनके बाद आने वालों को दुम्बे की कुरबानी का सवाब मिलता है और जो उनके पीछे आते हैं उन्हें मुर्गी और अण्डों के खैरात करने का सवाब मिलता है और जब इमाम खुत्बा पढ़ने के लिए मिम्बर पर बैठता है तो फरिश्ते आमालनामे के दफ़्तर लपेट लेते हैं और खुत्बा सुनने के लिए मस्जिद में आ जाते हैं। जुमा उन लोगों पर वाजिब होता है जिनके कानों में अज़ान के अल्फ़ाज़ पहुंचते हैं। (अबूदाऊद मिश्कात शरीफ 12-14)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जो आदमी पाक साफ होकर जुमा पढ़ने के लिए मस्जिद में जाता है और लोगों को उनकी जगह से नहीं हटाता नमाजियों की गर्दनें नहीं फलांगता फिर जितना हो सकता है नफल नमाज़ पढ़ता और इमाम के खुत्बे पढ़ने के समय खामोश बैठा रहता है उसके वे सारे गुनाह बख्श दिए जाते हैं जो पिछले जुमे से इस जुमे तक हुए हैं बल्कि तीन दिन ज़्यादा के गुनाह बख्शे जाते हैं। (तिर्मिज़ी, अबूदाऊद, नसई, इब्ने माजा)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया कि जो आदमी पैदल सवेरे सबसे पहले मस्जिद में जाए और इमाम के पास बैठकर खुत्बा सुने और कोई बात न करे उसे हर क़दम के बदले साल भर के रोज़ों का सवाब मिलता है और साल भर की पूरी रात इबादत करने का सवाब मिलता है। (सहीहीन मिश्कात 116)
नबी-ए-करीम सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फरमाया कि जिस आदमी ने जुमे की एक रकअत भी पा ली उसने जुमा पा लिया और जिसने एक रकअत भी न पायी बल्कि आखिर तशहहुद में मिला उसे जुहर के फ़र्ज़ो की चार रकअतों को पढ़ना चाहिए। अगर कुछ आदमी इमाम के साथ सलाम फेर देने के बाद आएं तो जुहर की नमाज़ अलग अलग पढ़ें। दोबारा जुमे की नमाज़ पढ़ना हदीस से साबित नहीं। हां, यदि किसी दूसरी मस्जिद में जुमा मिल जाए तो तुरन्त वहां जाकर जुमा अदा कर लेना चाहिए। (दारकुतनी मिश्कात 114)