यह कोई मुस्लिम मुल्क नही है। ये अहमदाबाद है साहब…

यह कोई मुस्लिम मुल्क नही है। ये अहमदाबाद है साहब…

यह कोई मुस्लिम मुल्क नही है। ये अहमदाबाद है साहब, भारत का अहमदाबाद, यह कोई मुस्लिम मुल्क नही है। यहाँ भारतीय मुसलमान अपने ईमान और वतन परस्ती के बुलंद जज़्बे के साथ रहते हैं। जरा आप, इनसे मोहब्बत और हमदर्दी के साथ पेश आईए ….. यक़ीन मानिए आपके लिए और अपने वतन के लिए कुर्बान होने से नहीं हिचकेंगे।

तीन साल पहले, कोरोनाकाल की एक रात की बात है, रात के तकरीबन 1 बज रहे थे। एक लक्ज़री बस ने हमें बापूनगर रोड़ पर उतारा वहाँ से हमें सिविल अस्पताल जाना था।

ऑटो वाले सिविल अस्पताल पहंचाने के लिए तीन – चार सौ रूपये किराया लेने का मुनादी कर रहे थे, इससे कम पर कोई भी ऑटो वाला जाने को तैयार नही थे।

उसी वक्त एक गोल टोपी वाले लगभग 60 – 61 साल की उम्र के एक मुसलमान चचा दिखाई दिये, हाल्कि हमें उनके ऑटो में बैठने में डर लग रहा था।

हम उनके ऑटो पर बैठ गयें। रास्ते में उन्होंने हमसें कोई बात नही किया, चुपचाप हमें सिविल अस्पताल के केम्पस में पहुंचा दिया, मैने उनकी ओर पांच सौ रूपये का नोट बढ़ाया भाड़ा अदा करने के ख्याल से।

मै सोच रहा था तीन – चार सौ रूपये से ज्यादा नही लेंगे !

रूपये लेने के बदले वो मुस्लिम चचा ने मेरे हाथ को पकड़कर मुझे अपने ऑटो के पीछे लिखे बोर्ड की तहरीर पढ़ने के लिए इशारा किया, जिसमें लिखा था …..यह ऑटो रात के मरीजों के लिए नि:शुल्क सेवा करता है।

मैंने उनका नाम पूछा ? तो उन्होंने अपना लाइसेंस निकालकर दिखाया जिसमें रहीम खान लिखा हुआ था। उनके साथ हमारी बातें इशारे में हो रही थी, रहीम खान बेहद रहमदिल इंसान के अक्स में भगवान थे। मैंने इशारे से पूछा आप कुछ बोल क्यूं नही रहे हैं ? उन्होंने हाथ को मुंह तक ले जाकर इशारे से ही बताया मैं गूंगा हूँ।

मुझे इस मुस्लिम बेजुबान चचाजान से मिलने से पता चला कि पॉलिटिशियन ( राजनीतिज्ञ ) और पॉलिटिक्स ( राजनीति ) ने मुस्लिमो को नाहक ही बदनाम करते है।

यह पोस्ट धर्मेन्द्र देवानी की गुजराती मेंं लिखे पोस्ट का हिन्दी तर्जुमा है।

( यह पिछले वर्ष का पोस्ट है, दुबारा पोस्ट कर रहा हूं )

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