रमन सिंह ख़ुद भी इन चार सालों में लगभग निष्क्रिय बने रहे. हार के बाद उनके पास कोई विकल्प भी नहीं था. वो भी मान चुके थे कि अब उनकी राजनीतिक पारी ढलान पर है.
कुछ राजनीतिक विद्वान कहते हैं, ”विधानसभा के लिए पहले दौर में जब टिकट बँटी तो माना गया कि सारा फ़ैसला केंद्रीय नेतृत्व का है, स्थानीय नेताओं की कहीं कोई भूमिका नहीं रही है. लेकिन दूसरे दौर में शेष बचे टिकट बाँटे गए तो नज़र आया कि सारे पुराने चेहरे फिर से मैदान में उतर दिए गए थे और यह सब रमन सिंह की सलाह पर ही किया गया.”
राजनीतिक गलियारे में कहा गया कि पुराने नेताओं को टिकट ही इसलिए दिए गए ताकि वो चुनाव में कोई असंतोष न पैदा कर सकें और फिर से मिले मौक़े को जी-जान से लड़ कर कम से कम अपनी उपयोगिता तो सिद्ध कर सकें.
चुनाव परिणाम जब आया और भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में आई तो तुरंत बाद रमन सिंह ने अधिकारियों को चेतावनी जारी की कि वे पुरानी तारीख़ों में कोई चेक न काटें और ना ही बैक डेट में किसी फ़ाइल पर हस्ताक्षर करें.
इसी के साथ रमन सिंह अपने पुराने तेवर में लौट चुके थे.
”रमन सिंह को पता था कि चौथी बार उम्मीद पालने का कोई अर्थ नहीं है. फिर भी उनकी किसी कोशिश पर भाजपा हाईकमान मुहर इसलिए नहीं लगा सकता था क्योंकि फिर ऐसी ही स्थिति मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी सामने आती. वहां भी शिवराज सिंह चौहान और वसुंधरा राजे पर विचार करने की ज़रूरत आती. रमन सिंह की कोई कोशिश सफल होती, इसमें संशय है.”
हालांकि रविवार को विधायक दल की बैठक में सबसे अंत में रमन सिंह के पहुंचने से पहले अफ़वाह उड़ी कि वो अंतिम समय तक मुख्यमंत्री बनने की कोशिश में जुटे हुए हैं. इसके लिए वे पुराने सहयोगियों के साथ दूसरी जगह बैठक में हैं.
लेकिन असहज-सी भावमुद्रा के बाद भी, उनके ही द्वारा विष्णुदेव साय के नाम का प्रस्ताव रखे जाने ने इन अटकलों पर विराम लगा दिया.
भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि आदिवासी मुख्यमंत्री बना कर ओडिशा और झारखंड के चुनाव में भी पार्टी को संदेश देना था.
इसके अलावा आदिवासी राष्ट्रपति के बाद भी आदिवासी और दलित विरोधी होने के आरोपों का भी जवाब देना था.
इस नेता ने मीडिया से कहा, ”देर सबेर जाति जनगणना का मुद्दा भी हमारे सामने होगा. ऐसे में एक ओबीसी और आदिवासी बहुल राज्य में सवर्ण चेहरा हमारे लिए कोई बेहतर विकल्प नहीं था. हमने बरसों की आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग की जन अपेक्षा को पूरा किया है.”
71 साल के रमन सिंह के हिस्से फ़िलहाल तो विधानसभा अध्यक्ष की कुर्सी संभालने की पेशकश है, लेकिन लोकसभा चुनाव और शायद उसके बाद भी, उनको लेकर अटकलों का दौर जारी रहेगा.
अटकलें हैं कि जिसमें कहा जा रहा है कि उन्हें पार्टी लोकसभा चुनाव लड़ाएगी, जीत गए तो केंद्र में मंत्री बनाएगी, कुछ न हुआ तो किसी राज्य के राज्यपाल तो बनाए ही जा सकते हैं!