इलेक्टोरल बाण्ड के माध्यम से मिले चन्दे के अकूत धन को संविधान पीठ के आदेश के बावजूद छुपाया जा रहा है, क्योंकि नाम उजागर होने से नाम और नीतियों का सामंजस्य भी प्रकट हो जायेगा।
पारदर्शिता का लम्बा अलाप भरते हुए सरकार के मुखिया ने घोषणा करते हुए खूब तालियां बटोरी थी कि न खाऊंगा न खाने दुंगा। इस ब्रम्हघोषणा के उलट, खायें पीये अघाएं, मोटियाए नेताओं ने जितना खाया उतना पचाया और उससे ज्यादा दबाया है। अब – जब इलेक्टोरल बाण्ड से गुप्त तरीके से मिले लगभग साढ़े छै हजार करोड़ रूपयों की हिसाब देने की बारी आई तो समूचे पार्टी की सांस फूलने लगी है। संविधान पीठ के आदेश के मुताबिक आदेश का अनुपालन 6 मार्च से किया जाना था। लेकिन इसे भी चाणक्य नीति का पैतराबाजी कहा जायेगा कि केवल एक दिन पूर्व अर्थात 5 मार्च को सुप्रीम कोर्ट में भारतीय स्टेट बैंक के अधिवक्ता संजय कपूर ने आवेदन लगाकर अनुपालन अवधि 30 जून 2024 तक बढ़ाए जाने का अनुरोध कर रहे है, ताकि की आचार संहिता की घोषणा, उम्मीदवारी, नाम वापसी, स्क्रूटनी, प्रचार अभियान, परिणाम, सरकार निर्माण सबकुछ निपट जाएं।
*मोहलत तो बैंक को चाहिए सरकार को नहीं, सरकार को आगे आकर लोकहित, देशहित और सरकार हित में कुबेरतुल्य दानदाताओं के नाम उजागर करना चाहिए !
सरकार कह सकती है, संविधान पीठ ने जो आदेश पारित किया है।भारतीय स्टेट बैंक को पालन करना है, इसमें सरकार की कोई भूमिका नही है। बताते चलें 2017 से जिस तरह से सरकार ने तीन – तीन कानूनों को बाधित करते हुए इलेक्टोरल बाण्ड की रचना किया और गुप्त तरीके से मिले विशाल धनराशि प्राप्त किया है, सरकार को चाहिए की आगे बढ़कर अपना छाती चौड़ा कर बताएं। बैंक तो नाम बताने में हीलाहवाला कर रही है।
ऐसा ही नही है कि इलेक्टोरल बाण्ड की धनराशि केवल सरकार के ही पार्टियों को मिला है। बाकी पार्टियों को भी मिला है लेकिन फल्ली दाने की तरह और विश्व के सबसे बड़ी पार्टी को काजू, किसमिस, मेवे के हलवे से भरी पूरी की पूरी परात की तरह …..