बांग्लादेश में हिंसा: ‘बहू देखने गए थे, लौटकर सुना कि बेटा ही नहीं रहा’

बांग्लादेश में हिंसा: ‘बहू देखने गए थे, लौटकर सुना कि बेटा ही नहीं रहा’

“मैं अपने बेटे की शादी के लिए लड़की देखने गया था. लेकिन लौटा तो पता चला कि मेरा बेटा ही अब इस दुनिया में नहीं रहा.”

यह कहते हुए अब्दुर रज़्ज़ाक़ का गला भर आता है.

रज़्ज़ाक़ का इकलौता बेटा आरक्षण विरोधी आंदोलन के दौरान हिंसा की भेंट चढ़ गया.

परिवार के मुताबिक़, 27 साल के हसीब इक़बाल एक निजी संस्थान में नौकरी करते थे. वो बीते शुक्रवार की दोपहर को ढाका के मीरपुर इलाके़ में स्थित अपने घर से जुमे की नमाज़ पढ़ने निकले थे.

वो बताते हैं, “उस दिन नमाज़ के बाद मुझे एक दावत में जाना था. दरअसल, वह बेटे की शादी के लिए लड़की देखने का एक कार्यक्रम था. इसलिए मस्जिद से जल्दी घर लौटने के बाद मैं दावत के लिए रवाना हो गया.”

उधर, इक़बाल जब नमाज़ ख़त्म होने के तीन घंटे बाद भी घर नहीं लौटे तो घरवाले चिंतित और परेशान हो गए.

इक़बाल के पिता रज़्ज़ाक़ ने मिडिया कहा हैं, “मैंने शाम को घर लौटने पर सुना कि बेटा अब तक नहीं लौटा था. उस समय बाहर हंगामा और हिंसा चल रही थी. इस वजह से हम लोगों की चिंता स्वाभाविक थी. हमने तमाम संभावित ठिकानों पर उसकी तलाश शुरू कर दी.”

लेकिन क़रीब डेढ़ घंटे की तलाश के बावजूद परिवार को इक़बाल के बारे में कुछ पता नहीं चला. बाद में शाम को उसकी मौत की ख़बर आई.

रज़्ज़ाक़ ने रोते हुए बताया, “शाम को अचानक एक युवक ने फोन पर बताया कि अंकल, हसीब के शव को स्नान करा दिया गया है. अब आप उसका शव ले जाएं.”

परिवार को इक़बाल का शव कफ़न में लिपटा मिला था.

रज़्ज़ाक़ बताते हैं, “हमने सुना कि उसकी मौत दोपहर को ही हो गई थी. उसके बाद पुलिस ने शव को अंजुमन मुफीदुल के पास भेज दिया था. उन्होंने ही शव को नहलाने और कफ़न में लपेटने का काम किया.”

अंजुमन मुफीदुल इस्लाम बांग्लादेश का एक धर्मार्थ संगठन है जो लावारिस या बेघर लोगों के शवों को कफ़न-दफ़न और अंतिम संस्कार का इंतज़ाम करता है.

मौत के बाद इक़बाल के शव की तत्काल शिनाख्त नहीं कर पाने की वजह से पुलिस ने उसे ‘लावारिस’ घोषित कर दिया था.

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